Sunday, April 4, 2010

छुट्टी, मिलना आसान, काटना मुश्किल

काफी समय बाद मुझे लगातार दो दिनों की छुट्टी मिली। इसका दुरूपयोग करते हुए मै गाज़ियाबाद अपने चाचा से मिलने चला गया। दुरूपयोग इसलिए कह रहा हूँ कुन्की इसके बदले मै रूम पर कोई अच्छी सी किताब पढ़ सकता था। लेकिन सामाजिक सरोकारों को निभाते हुए और खुद को अच्छा भतीजा साबित करने के लिए अपने प्रिय चाचा-चाची के पास चला गया। खैर जाने पर अच्छा लगा, लेकिन उसके बदले में बड़ा नुकसान हुआ जो अब महसूस कर रहा हूँ। ३० मार्च को रात में जल्दी काम ख़त्म कर रूम पर चला गया। सुबह छह बजे की ट्रेन थी सो पांच बजे मेरा साथी लोकेश मेरी गुज़ारिश पर मुझे स्टेशन छोड़ने को राजी हो गया। चाचा-चाची से मिलने की ख़ुशी में आँखों से नींद इस कदर गायब हो गई जैसे मै पिछले १२ घंटो से सो ही रहा था। ५.१५ बजे स्टेशन पहुँच गया। गफलत में पहले मैं दिल्ली जाने वाली ट्रेन में बैठ गया। दुसरे मुसाफिरों से पता चला की ट्रेन गाज़ियाबाद नहीं जाएगी, सो फुर्ती दिखाते हुए मै फ़ौरन समालखा स्टेशन पर उतर गया। आधे घंटे इंतज़ार के बाद गाज़ियाबाद जाने वाली ट्रेन आई। उसमे सवार हो तीन घंटे में अपनी मंजिल पहुँच गया। रास्ते भर मै uoonghta रहा। घर पहुँच कर अच्छा लगा। एक घंटे में मेरी सारी बातें ख़तम हो गईं। मसलन सभी का हलचल वगैरह -वगैरहउसके बाद टीवी देख कर टाइम पास करने लगा। दो घंटे देख कर उससे भी जी भर गया। तब समझ मै आया की छुट्टी लेना कितना आसान है और उसे काटना कितना कठिन. यह मेरा फलसफा है.
इस दौरान एक बात समझ आ गई की छुट्टी लेकर घर बैठना और परिवार वालों के साथ गप मरना मेरे बस की बात नहीं है। वो अलग बात है की हर बार घर जाने पर मुझे यह बात समझ आती है और कर्म भूमि में लौटते ही फिर से उसे भूल जाता हूँ। दो दिन गाज़ियाबाद में जाया करने के बाद पानीपत लौट आया। और फिर हर बार की तरह तय किया की अब जरुरी काम पड़ने पर ही छुट्टी लूँगा। एक बात मै एकदम सच कहता हूँ। काम करने और व्यस्त रहने में ही मुझे मज़ा आता है। जम्मू से भी जब मै आठ दस दिनों के लिया जाता था तो घर में बोर हो जाता था। अब पानीपत आ गया हूँ। फिर वाही पुराना नियम शुरू हो गया। सुबह ११-१२ बजे जागना। 4 बजी खाना और फिर ऑफिस। रात दो बजे रूम पर लौटना। खाना बनाना, खाना और भोर में ५ बजे सोना। ब्रेकफास्ट तो अपनी दिनचर्या में ही नहीं है। घर जाता हूँ तो जब मम्मी ब्रेकफास्ट के लिए पूछती हैं तो लगता है मजाक कर रही हैं। अब लगता है की ब्रेकफास्ट हम जैसे उल्लूँ के लिए नहीं बनाया जाता। उल्लूँ इसलिय कहा क्यूंकिअपनी दिनचर्या ही ऐसी है। आम आदमी से बिलकुल अलग।
जम्मू में हम ५ बजे ऑफिस थे और रात में दो बजे घर। सुबह १० बजे जाग जाते थे। वहां हम और भूपेंद्र साथ में थे। हम घर से ऑफिस के आलावा कही नहीं जाते थे। १५ से ५ के बीच घर से बाहर निकलने में नानी याद आने लगती थी। वहां कई सप्ताह हमें रात में सड़कों पर चमचमाती लाइट देखे हुए हो जाते थे। वीकली भी दो तीन महीने महीने में एक बार मिलती थी। कई महीने बाद छुट्टी मिलने पर रात को जरुर घमने जाते थे। तब हम सब कुछ ऐसे देखते थे मनो अभी अभी जेल से छुट कर आये हैं या फिर दूसरी दुनिया से. तब लगता थे की हमारी जिन्दागे नरक हो गई है। अपनी दुनिया ही अलग हो गई थी। सिर्फ अख़बार, अख़बार और अख़बार।
पानीपत में कई बातें खास हुईं। यहाँ भी मुझे बहुत अच्छे लोग मिले। अमित सर, नागा बाबा, लोकेश, विनोद, राजेश aur निवेदिता। सभी बहुत अच्छे। मेरा मानना है की अच्छे लोगों के साथ हमेशा अच्छा ही होता है। अब यहाँ से भी कई लोगों का ट्रान्सफर होने वाला है। डर लग रहा है की सभी का साथ छूट जायेगा।
आज बहुत दिनों के बाद इतनी देर बैठ कर लिखा हूँ। जो दिमाग में आया, लिखता चला गया. कुछ नहीं सोचा। कोशिश होगी की अब लिखता रहूँगा###

4 comments:

  1. अच्छी रचना। बधाई। ब्लॉगजगत में स्वागत।

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  2. जीवन में कभी भी कुछ भी करो, लेकिन हमेशा स्वयं से एक बार जरूर पूछना जो कर रहे हो वह कितना सही और सटीक है। फिर तुम्हें कभी अफसोस नहीं होगा। अच्छे लोगों को जीवन में हमेशा अच्छे लोग ही मिलते हैं। मेरी शुभकामनाएं सदैव तुम्हारे साथ रहेंगी। मैं कहीं भी रहूं। लिखते रहो...

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  3. हा हा हा.... बहुत अच्छे. मजा आ गया. पुरुषों के साथ यही समस्या होती है, उनके पास सामाजिक बातों के लिए पर्याप्त हुनर नहीं होता. मैं अगर दस दिन भी घर रह जाऊं तो भी लगता है की माँ से कितनी बातें करनी है. पड़ोस वाली आंटी से तो बातें की ही नहीं. दोस्तों संग तो बातें ख़तम ही नहीं होती मेरी. खैर ये तो नेचुरल अंतर है हमारे और तुम्हारे बीच... बहुत अच्छा लिखा है, मजाआया

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  4. इस नए चिट्ठे के साथ हिंदी ब्‍लॉग जगत में आपका स्‍वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!

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