Monday, April 19, 2010

नई दुनिया में पहला कदम-२


जम्मू में हरिगोविंद जी का साथ मिला तो मैंने भगवान का शुक्रिया अदा किया। उन्होंने मेरी हौसलाफजाई की और अपने साथ रूम पर ले आए। मैं इस 'युद्धभूमिÓ में अपने पूरे साजोसामान (बेडिंग और जरूरी सामान) के साथ आया था। रूम पर दो और उजाला वाले मिले। दिनेश जी और संजीव जी। दोनों ही बेहतरीन। परिचय हुआ। शाम को उनके साथ ही उजाला ऑफिस गए। २३ मार्च २००६ तारीख थी। पहले दिन ऑफिस जाते समय बहुत नर्वस था। मन ही मन जाने कहां-कहां के $खयाल आने लगे। ऑफिस की सीढिय़ां चढ़ते हुए डर रहा था। मेरी पहली जॉब, जाने कैसे लोग मिलेंगे, क्या पूछ बैठेंगे, मैं क्या जवाब दूंगा... जैसे सैकड़ों सवाल मेरे मन-मस्तिष्क को झकझोर रहे थे। ऑफिस में दाखिल होते ही सबसे पहले मेरा सामना हुआ प्रदीप मिश्रा सर से। पहली मुलाकात में उन्होंने मुझे बहुत सहज कर दिया। मेरा नाम पूछा। उन्हें मेरे आने की संभवत: पहले से ही जानकारी थी। मुझे संपादक जी के आने का इंतजार करने को कहा। संपादक रवींद्र श्रीवास्तव जी आए। मुझे केबिन में तलब किया गया। पहले मुझे देखते ही शायद उन्हें भी अचरज हुआ। संक्षिप्त बातचीत हुई। उसके बाद मुझे पहले पन्ने पर सहयोगी के रूप में काम दिया गया। पहला दिन ठीक-ठाक गुजर गया। फिर रात में अखबार छूटने के बाद मेरा सभी सहकर्मियों से परिचय हुआ। सभी मुझे और मेरी उम्र देखकर ताज्जुब कर रहे थे। संपादकीय टीम में मैं वहां सबसे छोटा था। धीरे-धीरे काम समझता गया और दिन बीतने लगे। बीच-बीच में संपादक जी बुलाते और कहते तुम मुझे सच बताओ, तुम घर से झगड़ा करके तो यहां नहीं आए हो?
उन दिनों मेरे पास मोबाइल नहीं था। मैं रोजाना एक पीसीओ से घर बात करता था। वहां सभी को मेरी बहुत फिक्र रहती थी। इस दौरान ऑफिस में ही कुछ लोगों ने कहा कि ये तेरी पढ़ाई-लिखाई की उम्र है। यहां क्या करने आ गया... घर से इतनी दूर। शुरू में मुझे अटपटा लगा। कभी-कभी उनकी बातें भी सही लगती थीं। लेकिन बाद में फिर सोचता कि जो काम आज से दो साल बाद करना है, उसे करने का अभी मौका मिले तो क्या हर्ज है। सो इन बातों को दरकिनार कर खुद को अपडेट करने लगा। इसी दरम्यान मुझे अब तक का सबसे अच्छा दोस्त मिला। भूपेंद्र। कद-काठी हूबहू मेरी जैसी। उसने मुझे बहुत सिखाया। उसके बाद प्रदीप सर। उन्होंने भी मुझे बहुत कुछ सिखाया। उनकी याददाश्त तो माशाअल्ला... तीन महीने पहले की खबर भी उन्हें याद रहती थी कि फलां खबर फलां पेज पर सेकेंड स्लॉट में बाएं हाथ पर लगी है। ऑफिस में सभी डरते थे। मैं भी... लेकिन बाद में उनसे ही बातें करने में अच्छा लगता था। इसके अलावा राजेश राठौर सर और उमेश सर मेरे लिए बहुत सम्माननीय हैं। इन्होंने भी मुझे बहुत कुछ सिखाया। इन लोगों के साथ काम करने में बड़ा मजा आया। धीरे-धीरे एक-एक कर सभी लोग बिछड़ते गए। भला हो एलेक्जेंड्रा ग्राहम बेल का, जिन्होंने टेलीफोन बनाया। वरना, इन लोगों से बातें कैसे होती।
कुल मिलाकर जम्मू में मैं तीन साल रहा। तीन साल के दौरान एक और मेरे लिए बड़ी उपलब्धि रही। यहां मैंने वर्ष २००७ में अमरनाथ यात्रा की। बेहद रोमांचकारी अनुभाव था। बाद में तफसील से बताऊंगा। यादगार अनुभव था। जम्मू में मेरी जिंदगी का बेहद खुशगवार और निर्णायक समय बीता। यहां काफी कुछ सीखने को मिला। उसके बाद अब दैनिक भास्कर के साथ नई पारी शुरू की। यहां फिलहाल नॉट आउट दस महीने हो गए हैं।
आगे देखते हैं... कहां है अगला ठौर।

1 comment:

  1. ठौर ही ठौर हैं... बस यूँ ही बढ़ते चलो...

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