Thursday, May 6, 2010

मेरी अमरनाथ यात्रा - २




हमें पहलगाम कैंप में रात को ही बता दिया गया था कि सुबह सात बजे चंदनवाड़ी पहला दल रवाना होगा। लिहाजा, आप सभी साढ़े छह बजे ग्राउंड में आ जाएं। हम सुबह पांच बजे उठे। यह सोचा कि सबसे पहले हम ही तैयार होकर पहुंचेंगे। लेकिन बाहर आए तो देखा हमसे भी चौकन्ने लोग हैं। सैकड़ों लोग कतार में लगे हुए थे। हम भी लग लिए। एक-एक बंदे का नाम नोट कर बाहर भेजा जा रहा था। बाहर आए तो चंदनवाड़ी के लिए बसें लगी हुईं थी। हम तेजी से भागे और बस में सवार हो गए। यहां भी हमसे पहले कई लोगों ने बाजी मार ली थी। शुक्र है सीट मिल गई थी। इस समय तक हम समुद्र तल से ९५०० फीट की ऊंचाई पर थे। अब हम और ऊंचाई की ओर बढ़ रहे थे। पहलगाम बेस कैंप से चंदनवाड़ी के बीच १६ किलोमीटर की दूरी हमने बस से तय की। वाहन का साथ यहीं तक था। अब हमारी पद यात्रा शुरू हुई। बाबा बर्फानी की ओर जैसे-जैसे हम बढ़ रहे थे, नजारा और मनोहारी होता जा रहा था। हर बार लगता कि इससे सुंदर नजारा हो ही नहीं सकता लेकिन कुछ लम्हों बाद हम गलत साबित होते। प्रकृति का एक और नायाब चेहरा हमें निहारता और हम उसे, अपलक। चन्दनवाड़ी में फिर कतार लगानी पड़ी। यहां तक जम्मू से सभी भक्तों को एक साथ रखा गया था। इसके बाद सभी को अलग अलग छोड़ दिया गया था। सभी अपने-अपने ग्रुृप के साथ स्वच्छंद थे। बाबा के नारे लगाते हुए आगे बढ़े जा रहे थे। कुछ दूर तक तो रास्ता सीधा-साधा था, लेकिन उसके बाद एकदम से पथरीला और ऊंचाई की ओर जाता रास्ता हमारा इंतजार करता दिखा। देखकर लगा कि यह रास्ता कैसे पार होगा। रास्ता भी वाकई देखने में बेहद पथरीला था। ऐसा रास्ता जो लाठी का सहारा न लें तो आप लुढ़कते हुए प्रारब्ध में पहुंच जाएंगे। शिवशंकर का नाम लिया और शुरू कर दी चढ़ाई। ग्रुप में चूंकि मैं सबसे यंग, पतला दुबला और शायद फुर्तीला था, इसलिए सरपट भागे जा रहा था। आगे जाकर अपने साथियों को प्रोत्साहित कर जल्दी पांव बढ़ाने को कहता। चंदनवाड़ी से तीन किलोमीटर दूर पिस्सूटॉप हमारा अगला पड़ाव था। शुरुआत में जो उत्साह था वो इस एडवेंचर भरे रास्ते को देख कुछ समय तो कायम रहा, लेकिन कुछ घंटे बीतने के बाद थकान हावी होती गई। हम निरंतर ऊंचाई की ओर बढ़ रहे थे। शुरू के तीन किलोमीटर में ही हमारी हालत खस्ता हो गई। ऐसा लग रहा था मानों कई दिन से चल रहे हों। लंबी ट्रैकिंग के चलते हम लोगों ने बेहद हल्का-फुल्का नाश्ता किया था। कुछ घंटों की पदयात्रा कर हम पहुंच गए अपने पहले पड़ाव पिस्सूटॉप पर। यहां दूर-दूर तक इतना ऊंचा पहाड़ नहीं दिख रहा था। ११००० फीट की ऊंचाई पर पहुंचकर तीन दिशाओं की ओर देखा तो लगा कि यही सबसे ऊंची जगह है। लेकिन मुड़कर चौथी दिशा की ओर देखा तो ऊंचा पर्वत अकड़ा हुआ हमें डरा रहा था। हमारी अगली मंजिल जोजीबल का रास्ता इसी पहाड़ के पीछे से था। पहाड़ को काटकर बनाई गई पगडंडी नुमा रास्ते से होते हुए हम बढऩे लगे। यहां रास्ता इतना तंग था कि एक साथ तीन लोगों का भी चलना दुश्वार था। एक कदम भी लडख़ड़ाने पर पता नहीं कितने हजार फीट नीचे दफन हो सकते थे। सावधानी बरतते हुए हम जोजीबल पहुंचे। इसके बाद अगली मंजिल नागकोटि थी। दोपहर तक हम यहां पहुंच चुके थे। सांझ होते-होते हम ११७०० फीट ऊपर शेषनाग पहुंचे। पिस्सूटॉप से यहां तक का सफर ११ किलोमीटर था। यहां आने तक हमारे शरीर का कचूमर निकल चुका था। यहां भी भोले का भंडारा लगा था। हम लोगों ने तय किया कि रात यहीं बिताई जाएगी। शेषनाग में तीन ओर से पहाड़ों से घिरा एक तालाबनुमा कुंड दिखा। पहाड़ों पर पड़ी बर्फ पिघलकर उसका पानी इसी कुंड में समा रहा था। वह दृश्य विहंगम था। किवदंती है कि नागपंचमी के दिन इस कुंड में भगवान शेषनाग दर्शन देते हैं। कुंड का पानी बेहद स्वच्छ और निर्मल लग रहा था। हमने उसी दिन उस कुंड में भगवान शेषनाग के दर्शन करने की चेष्टा की। मन ही मन उनका प्रतिबिंब बनाकर उसे तालाब में देखने असफल कोशिश की। खुद पर खीझ आई कि नागपंचमी के दिन यहां क्यों नहीं आए। हाथ जोड़कर मैं आगे बढ़ गया।
शेषनाग में अमरनाथ बोर्ड की ओर से रुकने का प्रबंध किया गया था। यहां दो कलाकार शंकर और पार्वती का स्वांग भी कर रहे थे। हम लोग वहीं धूनी रमाए बैठे रहे। कुछ ही देर में बारिश होने लगी। यहां मौसम पल-पल इस कदर रंग बदल रहा था जैसे गिरगिट। हमें तनिक भी भान न था कि यहीं बारिश हो जाएगी। हम टेंट की ओर भागे। बारिश के बाद ठंड भी यकायक बढ़ गई। कंपकंपी छूटने लगी। थकान इतनी जबरजस्त थी कि मैं बिना कुछ खाए-पिए ही सो गया। साथियों ने जगाने की कोशिश की, लेकिन मैं कहां जागने वाला था। मेरी कुंभकरणी नींद भोर में ही टूटी।

दूसरा दिन चलते-चलते ही बीत गया। जारी...

Saturday, May 1, 2010

मेरी अमरनाथ यात्रा -1






कई दिनों से सोच रहा था कि अपनी अमरनाथ यात्रा को लिपिबद्ध करूं। लेकिन मौका ही नहीं मिल रहा था। अब तीन साल बाद यह अवसर आया है। यात्रा बेहद रोमांचकारी रही। इसे लिखते हुए मैं यात्रा के दौरान बिताए हर पल को दोबारा जी रहा हूं।
वर्ष २००७ जुलाई के पहले सप्ताह में बाबा बर्फानी के दर्शन को निकले थे। यात्रा पर रवाना होने से कई सप्ताह पहले ही योजना बनानी शुरू कर दी थी। मन में गुदगुदी होती थी। पहाड़ों पर चढऩे के लिए स्पेशल शूज़, बैग, रेन कोट और न जाने क्या-क्या सामान खरीदे। बनारस से कुछ लोग आए थे। हम सात लोगों का ग्रुप था। उनमें कई मीडियापर्सन थे, जो हरिगोविंद जी के जानकार थे। दो-तीन जुलाई की बात है। यात्रा पर जाने की तारीख आ गई। ऑफिस से बड़ी मुश्किल से यात्रा के लिए छुट्टी मिली। इसके लिए अपने सहयोगी सुमित और अश्वनी जी का तहे दिल से शुक्रगुजार हूं।
सुबह पांच बजे हमारी बस जम्मू के बेस कैंप से पहलगाम के लिए रवाना होनी थी। रात दो बजे काम खत्म कर रूम पर पहुंचा। सामान बांधा और अपने अज़ीज़ भूपेंद्र जी के साथ तीन बजे तक बस स्टैंड के पास स्थित स्टेडियम में बने बेस कैंप पहुंच गए। हमारे दल के बाकी साथी वहीं इंतजार कर रहे थे। लंबी लाइन में लगने के बाद स्टेडियम में घुसने का नंबर आया। वहां दल के अन्य सदस्यों से परिचय हुआ। सभी अलग-अलग एज ग्रुप के थे। यहां भी मैं सबसे छोटा था। स्टेडियम का माहौल अद्भुत था। पिछले कई महीने से लगातार काम करके थक चुका था। यह माहौल बहुत सुकून पहुंचा रहा था। स्टेडियम में चाय पी, साथियों को पिलाई। फिर अपने नंबर की बस में जाकर बैठ गए। सुबह ठीक पांच बजे हमारी बस रवाना हो गई। बाबा बर्फानी के जयकारों के साथ जम्मू से नगरोटा होते हुए हम पहलगाम की ओर रवाना हो गए। कुछ देर सकुचाने के बाद मैं भी जोर-जोर से 'बोल बमÓ के जयकारे लगाने लगा।
माता वैष्णो देवी के कई बार दर्शन कर चुका हूं। वैष्णो देवी तक के रास्ते से तो परिचित था। उसके आगे पहली बार जा रहा था। रास्ते भर ऊंचे पहाड़, बंदर और ऐसे सुंदर जानवर जिन्हें मैंने पहले कभी नहीं देखे, बरबस अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे। बस में बैठे हुए विश्वास ही नहीं हो रहा था कि वाकई बाबा के दर्शन को जा रहा हूं। दरअसल, यात्रा पर आने के लिए कम से कम सात दिन की छुट्टी चाहिए थी, जो मुझे मिल नहीं रही थी। मेरे साथियों ने काफी पापड़ बेले, तब जाकर मुझे छुट्टी मिली थी। उधमपुर क्रॉस करने के बाद वाकई लगने लगा कि हम जन्नत में बसे बाबा के दर्शन को निकले हैं। पत्नीटॉप में तो बस में भी लग रहा था मानो एसी रूम में बैठे हों। चिपचिपाती-बिलबिलाती गर्मी हमसे कोसों दूर थी। रास्ते भर हम इस रूमानी सफर और मौसम का लुत्फ लेते रहे। हम लोगों के साथ कई बसों का लंबा काफिला चल रहा था। जिप्सी में सवार आर्मी के जवान हमें स्कॉर्ट करते हुए चल रहे थे। रास्ते में एक जगह बस कुछ देर के लिए रुकी तो हम सभी कमर सीधी करने और हसीन वादी को और करीब से महसूस करने के लिए उतर गए। लेकिन कुछ ही पलों में आर्मी के जवान सीटी बजाते हुए हमें एक तरह से खदेड़ते हुए फौरन बस में बैठने का इशारा करने लगे। हम भी मारे डर के दुम दबा के भागे और बस में जा दुबके।
कुछ देर बाद आया विश्व प्रसिद्ध जवाहर टनल। बनिहाल और काजीगुंड के बीच पीरपांजाल की पहाडिय़ों के सीने को चीरकर बनाई गई लगभग ढाई किलोमीटर लंबी यह सुरंग इंजीनियरिंग का नायाब नमूना है। इस सुरंग को पार करने में हमें तकरीबन पांच मिनट लगे। सुरंग में घुप्प अंधेरा था। यही सुरंग कश्मीर घाटी को पूरे देश से जोड़ती है। जम्मू प्रॉविंस और कश्मीर प्रॉविंस को यह सुरंग ही अलग करती है। सुरंग पार करते ही मानो पूरी आबोहवा एकदम से बदल गई। उस पार पहुंचते ही कश्मीरियत झलकने लगी। मौसम में यकायक बदलाव आ गया। एक खास बात। रास्ते में जगह-जगह बाबा के भक्तों के लिए भंडारे की व्यवस्था थी। सुरंग पार करते ही बस रुकी और हम भंडारे की ओर भागे। सुबह से सिर्फ मन ही भरा था, पेट खाली था। सो, यहां हमने पेट भरने में जरा भी संकोच नहीं किया और जी भर कर खाया। वाकई, भंडारे के खाने में स्वाद अपने आप आ जाता है। लज़ीज़ खाना था। आज भी वह स्वाद याद है। दोपहर तीन बजे के करीब हम अपनी मंजिल के और करीब पहुंच चुके थे। काजीगुंड के बाद आया अनंतनाग। यहां से हम पहलगाम में बने बेस कैंप की ओर रवाना हुए। शाम करीब पांच बजे हम पहलगाम में बने बेस कैंप पहुंच गए।
यहां कड़ी सुरक्षा-व्यवस्था के बीच कैंप में दाखिल हुए। कैंप में एसटीडी की सुविधा थी। सो, पहुंचते ही सबसे पहले घर में सभी को इत्तला किया कि हम सकुशल पहलगाम पहुंच गए हैं। इसके बाद हम आसपास के प्राकृतिक सौंदर्य को निहारने कैंप से बाहर निकले। बाहर का नजारा अद्भुत, अलौकिक और अप्रतिम था। अस्तांचल सूर्य की पीली रोशनी पहाड़ पर जमी बर्फ से जब टकरा रही थी तो ऐसा लगा मानो पहाड़ पर सोना पड़ा हो। उस दृश्य को मैं शब्दों में बयां नहीं कर पाउंगा। हम और आगे बढ़े। कैंप के ठीक सामने लिद्दर नदी बह रही थी। नदी जितनी शांत थी, उतनी ही शीतल। नदी देखकर मन ललचा गया और हम नहाने की तैयारी करने लगे। नदी के पास पहुंचे तो वहां पहले से दो युगल पानी में अठखेलियां कर रहा था। हम लोगों ने उनसे थोड़ी दूरी बनाते हुए अपना अड्डा कुछ और आगे बनाया। पानी में हाथ डालते ही नानी याद आ गई। नहाने का ख्याल तो भूल ही गए, हाथ-पांव भी धोने में कंपकंपी छूटने लगी। इतना ठंडा पानी कि खड़े होना भी मुश्किल हो गया था। मैंने पत्थर पर आसन जमाया और आसपास के नजारे को बेहद तफसील से निहारा और इन खूबसूरत वादियों को आंखों में कैद करने की कोशिश करने लगा। कैमरा हम साथ लाए थे। कई फोटो शूट किए। कैंप हमारा पूरी तरह महफूज़ था। कैंप के दोनों और ऊंची पहाडिय़ां थीं और कुछ घने जंगल। इससे पहले कई बार आतंकी इसी जगह पर ग्रेनेड हमला कर कई भक्तों की जान ले चुके थे, सो हमारा डरना लाजमी था। शाम ढलने लगी और हम अपने कैंप लौट आए। यहां कुछ हल्का-फुल्का खाया और कैंप में निढाल हो दिन भर की थकान उतारने को पसर गए। कुछ घंटे बाद उठे और फिर खाना खाया। खाना क्या खाया, अगड़म-बगड़म जो दिखा सो ठूंस लिया। यहां बहुत बड़ा भंडारा था। सैकड़ों स्टॉल थे। सभी पर अलग-अलग व्यंजन। देश भर से आए भक्तों को उनकी पसंद का खाना परोसा जा रहा था। यह सब होते-होते आठ बजे गए। हम वापस अपने कैंप में लौट आए। यात्रा का पहला दिन इस तरह गुजर गया।
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