Wednesday, July 29, 2015

स्वीकारोक्ति


वैसे जानता तो मैं उसे काफी पहले से था, लेकिन शुरू में वो मुझे बिलकुल भी अच्छी नहीं लगती थी। बचपन में हम एक-दूसरे को कनखियों से ही देखते थे। पर बीते 10 सालों के दौरान उससे एक अटूट सा रिश्ता बन गया। हमारी पहली मुलाकात साल 2006 में हुई। हालांकि वो मुलाकात एक मजबूरी में ही हुई थी।

घर से 1300 किलोमीटर दूर जम्मू जाने पर बहुत बुरा लगा। अचानक जैसे सब कुछ छूट गया, पर उसकी मौजूदगी ने कुछ हिम्मत बढ़ाई थी। जम्मू में ही मैंने उसे और करीब से जाना। जीवन के अकेलेपन को काफी हद तक उसने भरा। उसकी खासियत और हर बुरे वक्त में साथ निभाने की अदा का मैं भी कायल हो गया। शुरू में जितना उससे चिढ़ता था, अब उस पर उतना ही फिदा हो गया। धीरे-धीरे कई शहर बदल दिए। जम्मू, औरंगाबाद, मुंबई, पानीपत, गोरखपुर और अब आगरा। शहर बदले, दोस्त बदले पर वो न बदली।

बीच में कुछ दिनों के लिए मैंने उसका साथ छोड़ दिया, पर उसकी मोहब्बत कम न हुई। दोबारा वो याद आई तो फिर उसी शिद्दत से मिली। हमेशा की तरह मेरे लिए फिक्रमंद। फिर वही सुकून मिला जो पहली, दूसरी या तीसरी मुलाकात में मिला करता था। कई बार बुरे वक्त में उसने जिस तरीके से मेरा साथ दिया, उसने दिल जीत लिया। काम के तनाव और थकान से हारा हुआ सा लगता था, पर उसके सामने आते ही नई ऊर्जा आ जाती थी। दो मिनट की मुलाकात ही तरोताजा कर देती थी। समय बीतने के साथ हम दोनों की नजदीकियों की खबर दोस्तों के बाद घरवालों को भी हो गई। दोस्तों ने नसीहत दी कि भाई उससे दोस्ती ठीक नहीं। कभी-कभी की मुलाकात तो ठीक, पर लंबे समय का साथ अच्छा नहीं है। लेकिन वे टोकते-टोकते थककर चुप हो गए। ना-नुकुर करते हुए वे भी मान गए। ताज्जुब कि घरवालों ने इस रिश्ते पर ऐतराज नहीं जताया। शायद उन्हें मेरी मजबूरी पता थी। उन लोगों को भी वह बहुत पसंद थी। उसके गुणों से वाकिफ घरवाले भी गाहे-बगाहे उसके बारे में पूछ लेते थे। अब मुझे भी लगता था कि उसके बिना तो गुजारा नामुमकिन हो गया है।

लेकिन, इधर कुछ दिनों से लोगों ने उस पर एक तोहमत लगा दी है। लोगों का कहना है कि उसने मुझे बिगाड़ दिया है। उससे मुझे खतरा है। ऐसे लांछन से उसका वजूद ही संकट में आ गया है। मैं भी उसका बचाव नहीं कर पा रहा। जमाने के दबाव के आगे मुझे भी झुकना पड़ रहा। मुझे भी उससे दूर होना पड़ रहा। उसका साथ छोड़ना पड़ रहा। पिछले 10 सालों से जिस तरह उसने मेरा साथ निभाया, वह हमेशा याद रहेगा।
तुम बहुत याद आओगी मेरी प्यारी मैगी।
feeling sad.
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नोट : अपनी प्रेम कहानी मैंने उस वक्त लिखी थी, जब मैगी के ‘चरित्र' पर शक किया जा रहा है। पिछले दो महीने से मैगी की ‘अग्निपरीक्षा' लैब में ली जा रही है। मैगी के बाइज्जत बरी होने का मुझे बेसब्री से इंतजार है।

Friday, July 24, 2015



यूं इतनी खामोशी से तुम्हारा चले जाना... (2)


अभी सितंबर की ही तो बात है। उसकी मम्मा ने स्केटिंग क्लास में उसका एडमिशन कराया। नई स्केट किट खरीदी गई। मम्मा-डैडी ने जितने शौक से बच्चे के लिए किट खरीदी थी, बच्चा उससे भी ज्यादा शौक से उसे पहन स्केट करना सीख रहा था। महज एक सप्ताह ही हुए थे स्केटिंग क्लास जाते हुए। स्केट किट पहन स्कूल में क्लासमेट्स के साथ की उसकी फोटो ही हमारे पास उसकी अंतिम फोटो है। उसमें पूरी किट पहन वह स्केट करता दिख रहा है। हर चीज सीखने की उसकी चाहत से लगता था कि जानें कितनी जल्दी थी उसे सारी चीजें सीखने की। इतनी कम उम्र में वह डांस क्लास, स्वीमिंग क्लास और अब स्केटिंग क्लास ज्वाइन कर ली थी। स्कूल टाइम तो था ही। मम्मा दौड़ती-भागती रहती थी अपने बेटे को लेकर। पहले स्कूल, फिर डांस क्लास तो कभी स्वीमिंग क्लास और अभी नई क्लास शुरू हुई थी स्केटिंग की।

मुंबई में वह जितना स्मार्ट, समझदार और वेल मैनर्ड बच्चा था, अपनी नानी के घर कानपुर आकर उतना ही शैतान। बदमाशी सीखने में नानी के घर के सात दिन ही काफी होते थे। हर रोज एक नई शैतानी। मम्मा-डैडी भी हैरान कि सिर्फ एक दिन में ये कैसे मुंबई से कानपुर आकर बदल जाता है। शैतानी और देखनी हो तो सामने से मम्मा-डैडी को हटा दीजिए, फिर देखिए पैसे वसूल ‘अमोघ शो’। इतनी शैतानियों के बीच कुछ शैतानी काउल मामा और चीतेश भाई भी सिखा देते थे। जैसे ए बी सी डी में डी फॉर डंकी के जगह डी फॉर ढेंचू सिखाया गया। ऐसे तो सबके सामने डी फॉर ढेंचू ही बोलता पर जहां मम्मा-डैडी सामने आते तो ढेंचू से डंकी हो जाता। यानी मम्मा-डैडी का टेरर पूरा था।

बड़े होने के साथ-साथ उसकी क्यूटनेस और बढ़ती जा रही थी। यही वजह है कि बाहर कोई भी उसे एक बार देखता तो स्माइल के साथ हाय-बाय करता। डैडी-मम्मा के साथ एक बार ग्रोवल मॉल गया था। एक शॉपकीपर ने उसे देखा तो स्माइल कर हाय करने लगा। मम्मा का हाथ पकड़े अमोघ ने भी क्यूट सी स्माइल दी और मम्मा से सवाल किया, मम्मा मैं स्मार्ट लग रहा हूं ना। वो अंकल मुझे देखकर स्माइल कर रहे हैं। हां बेटा आप बहुत नाइस लग रहे हो। मम्मा का इतना कहना था कि उसने अपने बालों पर हाथ फेर दिया।

कोई चीज उसे पसंद आ जाए तो उसे मांगने का तरीखा भी बिलकुल जुदा था। डायरेक्ट मांगने की बजाए वो मम्मा से कहता कि मम्मा ये अच्छी नहीं है ना...। इतना कह उस चीज को ललचाती नजरों से देखता। यानी चाहिए पर कहना नहीं है। ऐसे ही एक बार मॉल में ट्वॉयज की शॉप के सामने से गुजरना हुआ। वहां रखी एक कार जनाब को पसंद आ गई। आदतन कहा तो कुछ नहीं, पर पलटकर लगातार उसे देखते जा रहा था। मम्मा और डैडी समझ गए। वापस पहुंचे शॉप पर। पूछा, अमोघ कुछ चाहिए? जवाब में जनाब ने ना में सिर हिलाया और कार देखने लगे। यानि कार ही चाहिए, बस और कुछ नहीं। सो कार दिलाई गई।  उसने कभी किसी को इरिटेट नहीं किया। बेवजह की फरमाइशें तो जैसे उसे आती ही नहीं थीं। मम्मा-डैडी ने जितना किया, उतना ही उसके लिए काफी होता था। अमोघ मम्मा-डैडी में खुश और मम्मा-डैडी अमोघ में खुश।

अमोघ की समझदारी का भी एक किस्सा पढ़िए। पानी से उसे बेहद प्यार तो था ही, इसलिए दिन में कई बार हैंडवॉश भी करता था। एक बार स्टूल पर चढ़कर वॉश बेसिन में हाथ साफ कर रहा था। हाथ साफ करने के बाद लाइट ऑफ करने के लिए बगल में ही लगे स्विच का बटन गीले हाथ से दबाया। दबाते ही झटका लगा। कुछ देर बाद डैडी भी हैंड वॉश करने पहुंचे। उन्होंने लाइट ऑफ करने के लिए कर्टेन के सहारे से बटन दबाया। अमोघ ने ये देख लिया। उसके बाद से मजाल है कि वहां कभी उसने गीले हाथ से बटन दबाया हो। पापा को कॉपी करके कर्टेन के ही सहारे अब लाइट ऑफ करता था। ऐसी न जानें कितने ही वाकये हैं जो पलकें भिगो देते हैं।

उसे गए हुए करीब 10 महीने हो रहे हैं। जाने के बाद ऐसा लग रहा था कि हम सब लाइफ में इतनी प्लानिंग करते हैं। बुढ़ापे तक की प्लानिंग कर लेते हैं। तमाम टारगेट फिक्स कर लेते हैं। ऐसा हुआ तो ये करेंगे, वैसा हुआ तो वो करेंगे, इस तरह जानें कितनी ख्वाहिशों, उम्मीदों और जिम्मेदारियों को अपने ऊपर ओढ़ लेते हैं। लेकिन ऊपर वाले की क्या प्लानिंग है, इससे पूरी तरह अंजान होते हैं। जिसकी कल्पना भी नहीं कर सकते, वैसा सोचने, सहने और समझते हुए आगे बढ़ने को मजबूर हो जाते हैं।

अमोघ के जाने पर भी ऐसा ही हुआ। उसके मम्मा-डैडी ने उसके लिए जानें कितनी प्लानिंग कर रखी थीं। इसीलिए इतनी कम उम्र में ही उसे डांसिंग, स्वीमिंग और स्केटिंग क्लास ज्वाइन कराई। मीरा रोड के सबसे अच्छे स्कूल में एडमिशन कराया। उसके लिए हर उस चीज का इंतजाम किया, जिससे उसका ब्रेन और डेवलप हो सके। इन्हीं कोशिशों का असर था कि वो जैसे-जैसे बड़ा हो रहा था, उसके सवाल भी उतने लॉजिकल होते जा रहे थे।  हालांकि अमोघ को लेकर मम्मा-डैडी की उम्मीदों का आसमान जितना ऊंचा था, उसका अहसास उन्होंने कभी बच्चे को होने नहीं दिया। अमोघ जब जो चाहे वो करे, शर्त सिर्फ एक थी कि वो बैड मैनर्स में शुमार नहीं होनी चाहिए। मम्मा-डैडी अमोघ को डॉक्टर-इंजीनियर बनाने से पहले एक अच्छा इंसान बनाना चाहते थे। इसी वजह से परवरिश भी वैसी ही की जा रही थी। लेकिन, सारी कोशिशें, सारी उम्मीदें ऊपरवाले की प्लानिंग के आगे 10 सितंबर 2014 को दम तोड़ गईं।

वो मनहूस रात ताउम्र याद रहेगी...।