Monday, April 19, 2010

नई दुनिया में पहला कदम-२


जम्मू में हरिगोविंद जी का साथ मिला तो मैंने भगवान का शुक्रिया अदा किया। उन्होंने मेरी हौसलाफजाई की और अपने साथ रूम पर ले आए। मैं इस 'युद्धभूमिÓ में अपने पूरे साजोसामान (बेडिंग और जरूरी सामान) के साथ आया था। रूम पर दो और उजाला वाले मिले। दिनेश जी और संजीव जी। दोनों ही बेहतरीन। परिचय हुआ। शाम को उनके साथ ही उजाला ऑफिस गए। २३ मार्च २००६ तारीख थी। पहले दिन ऑफिस जाते समय बहुत नर्वस था। मन ही मन जाने कहां-कहां के $खयाल आने लगे। ऑफिस की सीढिय़ां चढ़ते हुए डर रहा था। मेरी पहली जॉब, जाने कैसे लोग मिलेंगे, क्या पूछ बैठेंगे, मैं क्या जवाब दूंगा... जैसे सैकड़ों सवाल मेरे मन-मस्तिष्क को झकझोर रहे थे। ऑफिस में दाखिल होते ही सबसे पहले मेरा सामना हुआ प्रदीप मिश्रा सर से। पहली मुलाकात में उन्होंने मुझे बहुत सहज कर दिया। मेरा नाम पूछा। उन्हें मेरे आने की संभवत: पहले से ही जानकारी थी। मुझे संपादक जी के आने का इंतजार करने को कहा। संपादक रवींद्र श्रीवास्तव जी आए। मुझे केबिन में तलब किया गया। पहले मुझे देखते ही शायद उन्हें भी अचरज हुआ। संक्षिप्त बातचीत हुई। उसके बाद मुझे पहले पन्ने पर सहयोगी के रूप में काम दिया गया। पहला दिन ठीक-ठाक गुजर गया। फिर रात में अखबार छूटने के बाद मेरा सभी सहकर्मियों से परिचय हुआ। सभी मुझे और मेरी उम्र देखकर ताज्जुब कर रहे थे। संपादकीय टीम में मैं वहां सबसे छोटा था। धीरे-धीरे काम समझता गया और दिन बीतने लगे। बीच-बीच में संपादक जी बुलाते और कहते तुम मुझे सच बताओ, तुम घर से झगड़ा करके तो यहां नहीं आए हो?
उन दिनों मेरे पास मोबाइल नहीं था। मैं रोजाना एक पीसीओ से घर बात करता था। वहां सभी को मेरी बहुत फिक्र रहती थी। इस दौरान ऑफिस में ही कुछ लोगों ने कहा कि ये तेरी पढ़ाई-लिखाई की उम्र है। यहां क्या करने आ गया... घर से इतनी दूर। शुरू में मुझे अटपटा लगा। कभी-कभी उनकी बातें भी सही लगती थीं। लेकिन बाद में फिर सोचता कि जो काम आज से दो साल बाद करना है, उसे करने का अभी मौका मिले तो क्या हर्ज है। सो इन बातों को दरकिनार कर खुद को अपडेट करने लगा। इसी दरम्यान मुझे अब तक का सबसे अच्छा दोस्त मिला। भूपेंद्र। कद-काठी हूबहू मेरी जैसी। उसने मुझे बहुत सिखाया। उसके बाद प्रदीप सर। उन्होंने भी मुझे बहुत कुछ सिखाया। उनकी याददाश्त तो माशाअल्ला... तीन महीने पहले की खबर भी उन्हें याद रहती थी कि फलां खबर फलां पेज पर सेकेंड स्लॉट में बाएं हाथ पर लगी है। ऑफिस में सभी डरते थे। मैं भी... लेकिन बाद में उनसे ही बातें करने में अच्छा लगता था। इसके अलावा राजेश राठौर सर और उमेश सर मेरे लिए बहुत सम्माननीय हैं। इन्होंने भी मुझे बहुत कुछ सिखाया। इन लोगों के साथ काम करने में बड़ा मजा आया। धीरे-धीरे एक-एक कर सभी लोग बिछड़ते गए। भला हो एलेक्जेंड्रा ग्राहम बेल का, जिन्होंने टेलीफोन बनाया। वरना, इन लोगों से बातें कैसे होती।
कुल मिलाकर जम्मू में मैं तीन साल रहा। तीन साल के दौरान एक और मेरे लिए बड़ी उपलब्धि रही। यहां मैंने वर्ष २००७ में अमरनाथ यात्रा की। बेहद रोमांचकारी अनुभाव था। बाद में तफसील से बताऊंगा। यादगार अनुभव था। जम्मू में मेरी जिंदगी का बेहद खुशगवार और निर्णायक समय बीता। यहां काफी कुछ सीखने को मिला। उसके बाद अब दैनिक भास्कर के साथ नई पारी शुरू की। यहां फिलहाल नॉट आउट दस महीने हो गए हैं।
आगे देखते हैं... कहां है अगला ठौर।

Wednesday, April 7, 2010

नई दुनिया में पहला कदम-1

बात जनवरी २००६ की है। ग्रेजुएशन कंप्लीट करने के बाद मुझमे थी जिंदगी में औरों से कुछ अलग करने की सनक और कुछ नया करने की ललक। बचपन से ही मुझे अपने कोर्स से ज्यादा अखबार और पत्र-पत्रिकाएं पढऩे का शौक रहा है। कोर्स से इतर किताबें पढऩे पर मैं कई बार अपने घरवालों से डांट-डपट भी सुन चुका हूं।
जनवरी में मैं कानपुर अपने ननिहाल में था। तभी मुझे अपने परिचित से पता चला कि अमर उजाला में जॉब है। मैंने फटाफट अपना सीवी तैयार किया और भेज दिया अमर उजाला के मेल पर।
कई दिनों तक कोई रिस्पांस न आने पर मैंने उजाला के समूह संपादक शशि शेखर जी के पीए विकास गौड़ से बात की। उन्होंने मीठी गोली देते हुए कहा कि सीवी शार्ट लिस्ट की जा रही हैं। आपको कुछ दिनों में बता दिया जाएगा। मन मसोस कर रह गया, पर हिम्मत नहीं हारी। इस दौरान मैंने जमकर तैयारी शुरू कर दी। मसलन सभी समसामयिक गतिविधियों पर पैनी नजर। इंग्लिश, हिंदी सभी मैगजीनों को पढऩा, सभी अखबार चाटना वगैरह-वगैरह।
अगले 15 दिनों तक कोई फोन न आने पर फिर विकास जी को फोन किया। उन्होंने इस बार थोड़ी और चाशनी में भिगोकर पहले से मीठी गोली दी और कहा कि दो-चार दिनों में आपको कॉल किया जाएगा। यह सुन मैं बड़ा खुश हुआ। अपनी ओर से तैयारी शुरू कर दी।
मन ही मन अपने सपने बुनने लगा। लेकिन वे कई दिन और मुझे यूं ही झेलाते रहे। मैं फोन करता और वे वही पुराना रटा-रटाया जवाब दे देते। तब मैंने निश्चय किया कि ऐसे तो ये महाशय लोग मुझे टरकाते रहेंगे। पर मैं भी कम कहां था।
घर में बात की और पांच मार्च को सुबह चार बजे दिल्ली के लिए रीवा एक्सप्रेस पकड़ ली। कमबख्त अच्छी भली ट्रेन भी उसी दिन लेट होना था। १० घंटे का सफर १९ घंटे में पूरा हुआ। रात साढ़े ग्यारह बजे में बुआ के घर पहुंचा। रात भर नींद नहीं आई। सुबह फटाफट तैयार हुआ और निकल गया मेरठ अपने शुभचिंतक रमेश जी के घर। उन्होंने मेरी सीवी को और अपडेट किया और आशीर्वाद के साथ अमर उजाला के ऑफिस भेजा। (मुझे जर्नलिस्म में लाने वाले रमेश जी हैं। उनकी एक खास बात है। वे बहुत ही यथार्थवादी हैं। वे हमेशा प्रैक्टिकल बातें ही करते हैं। उन्होंने ही मुझे बूस्ट अप किया।)
उन दिनों उजाला का दफ्तर मेरठ में ही हुआ करता था। डरते-सकुचाते हुए मैं दोपहर में ऑफिस पहुंचा। वहां रिसेप्शन में दो लोग बैठे थे। मैंने उनसे कहा मुझे शशि सर से मिलना है। मेरा इतना कहा था कि उन्होंने मुझे इस कदर ऊपर से लेकर नीचे तक देखना शुरू कर दिया मानो मैंने कोई बहुत बड़ा अपराध कर दिया हो। खैर उनकी यह प्रतिक्रिया भी एक हद तक वाजिब थी। तब मेरी उम्र महज बीस साल थी। शरीर से मैं वैसे ही 'सूमो पहलवान टाइप का था। उनके दिमाग में यह बात तो जरूर आई होगी कि यह बालक 'बॉसÓ से क्यों मिलना चाहता है। (शशि जी को सभी 'बॉसÓ ही कहते थे)
खैर, मैंने उन्हें बताया कि मैं इलाहाबाद से उनसे मिलने के लिए आया हूं। इस पर उन्होंने थोड़ा सोचा और विकास गौड़ को फोन कर बताया। उन्होंने मेरी विकास से बात कराई। विकास को जरा भी भान न था कि मैं मेरठ तक चला आऊंगा। उसने कहा 'आप यहां तक क्यों आ गए। मैंने पहले ही कहा था कि आपको हम खुद ही फोन कर बताएंगे। मैंने कहा कि मैं दिल्ली आया था। सो यहां भी शशि सर से मिलने चला आया। तब विकास ने कहा कि 'बॉसÓ तो आज आए नहीं हैं। आप कल सुबह नोएडा ऑफिस आ जाइएगा। मरता क्या न करता। निराश हो मैं उल्टे पांव रमेश जी के घर लौट आया। रमेश जी ने कहा, कोई बात नहीं कल नोएडा चले जाना। फिर भागा दिल्ली। रात भर उधेड़बुन में लगा रहा। मन में पहाड़ सरीखे बड़े-बड़े सवाल आने लगे। सुबह-सुबह घर से निकल गया। एक तो दिल्ली कभी आया नहीं। उस पर यहां इतने जूते घिसने पड़ रहे थे कि नया जूता भी रहम करने की दुहाई देने लगा था। अंजान जगहों पर लोगों से पूछ-पूछ कर पहुंचना। ये सब इससे पहले कभी नहीं किया। एक बार तो मन किया कि छोड़ो ये सब चकल्लस। लौट चलें वहीं इलाहाबाद। लेकिन फिर लगा कि अभी लौटा तो फिर शायद ऐसा मौका कभी नहीं आए। सो दृढ़निश्चय कर नोएडा की बस पकड़ी और अंदाजन ऑफिस के आसपास उतर गया। वहां से पूछते-पाछते उजाला दफ्तर पहुंचा।
रास्ते भर आने वाले पलों की झलकियों का एहसास करता रहा। ऑफिस पहुंचा तो वहां भी सबसे पहले सिक्योरिटी गार्ड से ही पाला पड़ा। उसे भी सुनाई अपनी रामकहानी। तब उन्होंने मुझे फारवर्ड किया। एक घंटे इंतजार करने के बाद मुझे रिसेप्शन पर बुलाया गया। वहां एक स्मार्ट सी महिला और पुरुष बैठे थे। मुझे देखकर उनके चेहरे पर भी आश्चर्य सरीखा भाव आ गया। मैं डर गया कि किस दुनिया में आ गया। नए-नए अजीबोगरीब लोगों से पला पड़ रहा और ऐसा कि खुद की स्थिति हास्यास्पद सी लग रही। शायद उस महिला ने मेरे मन को पढ़ लिया। उसने मुझे बुलाया और तफसील से बात की। मैंने उसे भी अपना सीवी थमाया। उसने सीवी चपरासी को दिया। सीवी लेकर चपरासी अंदर किसी दूसरे हाल में चला गया। करीब आधे घंटे बाद महिला ने मुझसे कहा कि आपको कल मेरठ इंटरव्यू के लिए बुलाया गया है। यह सुनते ही मेरे दिमाग के फ्लैशबैक में तेजी से पिछले तीन दिन घूम गए। सोचा, इतने पापड़ सिर्फ इंटरव्यू की कॉल के लिए बेलने पड़े। खैर, चुपचाप उठा और उस महिला का धन्यवाद करते हुए बाहर निकल आया।
फिर वही मशक्कत। नोएडा से दिल्ली भागा, इस जल्दबाजी में कि कल फिर मेरठ जाना है। रमेश जी को सारी बातें बताईं। उन्होंने कुछ टिप्स दिए। अगले दिन का मैं बेसब्री से इंतजार कर रहा था।
आठ मार्च को सुबह उठा और फिर मेरठ के लिए रवाना हुआ। रास्ते में दो-चार जो भी अखबार उजाला, हिंदुस्तान, जागरण, टाइम्स ऑफ इंडिया और हिंदुस्तान टाइम्स मिला, उसे ले लिया और रास्ते भर पढ़ता गया। अगल-बगल की सीट वाले मुझे बड़े ही अचरज भाव से देख रहे थे कि ये लड़का इतने अखबारों का क्या करेगा। फिर मुझे इतनी तल्लीनता से पढ़ते देख एक ने पूछ ही लिया, इंटरव्यू देने जा रहे हो क्या? मैंने भी सिर हिलाया और फिर मन ही मन रट्टा मारने लगा। मेरठ में सीधा मोहकमपुर स्थित उजाला के ऑफिस गया। इस बार पहले के मुकाबले थोड़ी कम घबराहट थी। रिसेप्शन पर बताया कि मुझे इंटरव्यू के लिए नोएडा से भेजा गया है। वहां से मुझे एक सज्जन दीक्षित सर के पास ले गए। मुझे बताया गया कि वही मेरा इंटरव्यू लेंगे।
दीक्षित सर के पास पहुंचा तो उन्हें देख कर चौंक गया। लगभग 55 बरस के दीक्षित जी को पैरालिसिस था। उनका हाथ ही कुछ हद तक चलता था। थोड़ा बहुत शरीर भी घूम जाता था। वो जिस कुर्सी पर बैठे थे वो भी उनकी सहूलियत के हिसाब से मोडिफाई की गई थी। खैर, मैंने नमस्ते किया और उन्होंने बैठने का इशारा। वहां पहले से ही एक लड़की बैठी थी। वो भी हमउम्र ही थी। पहले रिटेन टेस्ट लिया आधे घंटे का। उस लड़की ने मुझसे पहले ही कंप्लीट कर लिया। मुझे तो लगा कि बाजी हाथ से गई। हम दोनों को इंतजार करने को कहा गया। थोड़ी देर बार लड़की से कहा कि उसे फोन कर इत्तला किया जाएगा। अब मेरी बारी थी। मुझे कहा गया कि आप शाम पांच बजे तक वापस ऑफिस आइए। ये सब नाटकबाजी होते-होते दोपहर एक बजे गए थे। मैंने सोचा कि ये चार घंटे कैसे बिताऊं। फिर रमेश जी के यहां चला गया और उत्सुकता लिए चार बजे ही ऑफिस आ गया। दो घंटे फिर इंतजार कराया गया। तब कहा गया आपको बॉस बुला रहे हैं। तब मुझे नहीं मालूम था कि शशि शेखर जी किस शक्शियत के व्यक्ति हैं बस इतना पता था कि अमर उजाला समूह के चीफ हैं। इससे ज्यादा कुछ नहीं।
बेधड़क और सहज भाव से उनसे मिलने पहुंच गया। सात से आठ मिनट की उनसे बातचीत हुई। उन्होंने भी मुझे ऊपर से नीचे तक देखा। फिर उन्होंने सवाल किये, पत्रकारिता में क्यों आना चाहते हैं? क्या विजन है? आदि-आदि। फिर उन्होंने पूछा- जम्मू जाओगे? तब मैं सोचा कि हो सकता है यूपी में कोई छोटा-मोटा इलाका हो, मगर आशंका थी, सो पूछ लिया 'जम्मू-कश्मीरÓ? उन्होंने कहा, हां, वहां जाओ, तुम्हारी ग्रूमिंग होगी। घर से निकलो। दुनिया देखा और दुनियादारी सीखो। मैं एक पल के लिए ठहरा और फिर बिना समझे-बूझे हां कह दिया। उन्होंने कहा, तो ठीक है... कब जाओगे? मैंने कहा, सर होली 18 को है। होली घर में खेल कर जाना चाहता हूं। उन्होंने स्वीकृति दे दी। उन्होंने कहा कि वहां जाओ वहां संपादक रवींद्र श्रीवास्तव को रिपोर्ट करो। बाकी बातें विकास समझा देगा। मैं इस समय तक सातवें आसमान पर था। चेहरे की खुशी देख कर ही विकास जी ने भी बधाई दी और आगे की प्रक्रिया समझाते हुए जम्मू ऑफिस का एड्रेस दिया और कहा कि होली के फौरन बाद जाकर ज्वाइन कर लेना। मैंने कहा ठीक है।
खुशी में झूमते हुए मैं ऑफिस से बाहर आया। ठीक सामने एक पीसीओ था। सबसे पहले यह खुशखबरी बुआ को दी। उसके बाद रमेश जी और फिर घर। सभी खुश हुए जानकर कि चलो एक प्लेटफार्म मिला। तब तक मैंने घर में यह नहीं बताया था कि मुझे जम्मू जाना है। रमेश जी से मिला और दिल्ली भागा। आते समय जो रास्ता अखबार पढ़ते-पढ़ते पता ही नहीं कब कट गया था, वही रास्ता जाते समय काटे नहीं कट रहा था। हर पंद्रह मिनट बाद उकताहट में बस की खिड़की सिर बाहर निकाल दिल्ली देखने की कोशिश करता था कि अब आ गया। दो घंटे की अझेल यात्रा खत्म हुई और आईएसबीटी से शालीमार बाग की बस पकड़ी और घर पहुंचा। बुआ बेहद खुश दिख रहीं थीं। नौ को बुआ के यहां दिन भर कमर सीधी की और शाम को श्रमशक्ति पकड़ इलाहाबाद का रास्ता नाप दिया। घर पहुंचा तो लगा कि वहां भी सब मानो मेरा ही इंतजार कर रहे थे।
कुछ देर जश्र का दौर चला। बाबा-दादी, ताऊजी-ताईजी, मम्मी-पापा, चाचा-चाची और बुआ, सभी बेहद खुश थे। बाद में मैंने जम्मू की बात बताई तो मम्मी और दादी का चेहरा उतर गया। कानपुर में मेरे ननिहाल भी यह बात बताई तो उन्होंने भी नाखुशी जताई। मेरे खानदान में भी किसी ने इतनी दूर जाकर जॉब करने की नहीं सोची थी। हां, बाबा जी जरूर लुधियाना में कुछ दिन रहे थे। ताऊजी का तो हर तीसरे दिन दिल्ली आना लगा रहता था। लेकिन जम्मू, यह बात किसी को आसानी से हजम नहीं हो रही थी। उस दौरान जम्मू को लोग जम्मू-कश्मीर ही बोलते थे। और कश्मीर का नाम जुबां पर आने के बाद लोगों के मन-मस्तिष्क में वहां की खूबसूरत वादियों को छोड़ हाथ में एके-४७ लिए खतरनाक चेहरे वाले आतंकी ही आते थे।
बहरहाल, बड़ी मान-मनौव्वल के बाद मम्मी को समझा पाया कि पहला ब्रेक मिल रहा है। जो काम मुझे दो या तीन साल बाद करना है, उसे अभी क्यों न किया जाए। मेरी जिद के आगे एक तरह से झुकते हुए उन्होंने अपनी रजामंदी दी (शायद कलेजे पर पत्थर रखकर)।
इसके बाद शुरू हुई जम्मू जाने की तैयारी। बेडिंग, बिस्तर, बर्तन, किताबें, कपड़े और भी कुछ जरूरी सामानों की पैकिंग होने लगी। १८ को होली थी। लेकिन इस बार जॉब की खुशी के आगे होली की खुशी काफूर हो गई। जम्मू जाने के लिए रिजर्वेशन कराया गया। मुझे जम्मू छोडऩे के लिए ताऊजी-ताईजी, सौरभ, मेरी बहन भी साथ में चले। उन्होंने कहा कि चलो तुम्हारे साथ-साथ हम भी माता वैष्णो देवी के दर्शन कर लेंगे। इलाहाबाद स्टेशन पर तो पूरा परिवार ही आया था। प्लेटफार्म पर गुजरे १०-१५ मिनट बहुत भारी पड़ रहे थे। मन ही मन रोए जा रहा था। मां की आंखें भर आईं थी।
सभी का आशीष लेकर चल दिया अपनी नई दुनिया की ओर। शाम को दिल्ली पहुंचे और वहां से रात को जम्मू मेल पकड़ी जो सुबह ११ बजे जम्मू पहुंची। वहां से हम फौरन कटड़ा रवाना हो गए। ये मेरी माता रानी के दरबार में दूसरी हाजिरी थी। इससे पहले ९४ में भी आया था। माता के दर्शन कर अगले रोज हम शाम को जम्मू पहुंचे। स्टेशन पर ताऊ जी को छोड़कर सभी वहीं वेटिंग रूम में रुक गए। इस बार भी लगा कि अब सबसे बिछड़ रहा हूं। ताऊ जी के साथ यूएनआई में काम कर रहे हरिगोविंद जी के पास रिहाड़ी पहुंचा। इनका पता रमेश जी ने ही दिया था। ताऊजी ने मुझे एक तरह से सुपुर्द करते हुए कहा कि बेटे का ख्याल रखिएगा। अंजान शहर में एक हरिगोविंद जी ही अपने लग रहे थे। उन्होंने भी कहा 'आप निश्चिंत रहिए, अब ये महाशय हमारे साथ हैं।Ó पंद्रह मिनट के बाद ताऊजी भी रवाना हो गए और मैं रह गया तन्हा अपनों से दूर। यहां सब कुछ अजीब लग रहा था। नया देस, नया भेष, और नई बोली...
जारी...

Sunday, April 4, 2010

छुट्टी, मिलना आसान, काटना मुश्किल

काफी समय बाद मुझे लगातार दो दिनों की छुट्टी मिली। इसका दुरूपयोग करते हुए मै गाज़ियाबाद अपने चाचा से मिलने चला गया। दुरूपयोग इसलिए कह रहा हूँ कुन्की इसके बदले मै रूम पर कोई अच्छी सी किताब पढ़ सकता था। लेकिन सामाजिक सरोकारों को निभाते हुए और खुद को अच्छा भतीजा साबित करने के लिए अपने प्रिय चाचा-चाची के पास चला गया। खैर जाने पर अच्छा लगा, लेकिन उसके बदले में बड़ा नुकसान हुआ जो अब महसूस कर रहा हूँ। ३० मार्च को रात में जल्दी काम ख़त्म कर रूम पर चला गया। सुबह छह बजे की ट्रेन थी सो पांच बजे मेरा साथी लोकेश मेरी गुज़ारिश पर मुझे स्टेशन छोड़ने को राजी हो गया। चाचा-चाची से मिलने की ख़ुशी में आँखों से नींद इस कदर गायब हो गई जैसे मै पिछले १२ घंटो से सो ही रहा था। ५.१५ बजे स्टेशन पहुँच गया। गफलत में पहले मैं दिल्ली जाने वाली ट्रेन में बैठ गया। दुसरे मुसाफिरों से पता चला की ट्रेन गाज़ियाबाद नहीं जाएगी, सो फुर्ती दिखाते हुए मै फ़ौरन समालखा स्टेशन पर उतर गया। आधे घंटे इंतज़ार के बाद गाज़ियाबाद जाने वाली ट्रेन आई। उसमे सवार हो तीन घंटे में अपनी मंजिल पहुँच गया। रास्ते भर मै uoonghta रहा। घर पहुँच कर अच्छा लगा। एक घंटे में मेरी सारी बातें ख़तम हो गईं। मसलन सभी का हलचल वगैरह -वगैरहउसके बाद टीवी देख कर टाइम पास करने लगा। दो घंटे देख कर उससे भी जी भर गया। तब समझ मै आया की छुट्टी लेना कितना आसान है और उसे काटना कितना कठिन. यह मेरा फलसफा है.
इस दौरान एक बात समझ आ गई की छुट्टी लेकर घर बैठना और परिवार वालों के साथ गप मरना मेरे बस की बात नहीं है। वो अलग बात है की हर बार घर जाने पर मुझे यह बात समझ आती है और कर्म भूमि में लौटते ही फिर से उसे भूल जाता हूँ। दो दिन गाज़ियाबाद में जाया करने के बाद पानीपत लौट आया। और फिर हर बार की तरह तय किया की अब जरुरी काम पड़ने पर ही छुट्टी लूँगा। एक बात मै एकदम सच कहता हूँ। काम करने और व्यस्त रहने में ही मुझे मज़ा आता है। जम्मू से भी जब मै आठ दस दिनों के लिया जाता था तो घर में बोर हो जाता था। अब पानीपत आ गया हूँ। फिर वाही पुराना नियम शुरू हो गया। सुबह ११-१२ बजे जागना। 4 बजी खाना और फिर ऑफिस। रात दो बजे रूम पर लौटना। खाना बनाना, खाना और भोर में ५ बजे सोना। ब्रेकफास्ट तो अपनी दिनचर्या में ही नहीं है। घर जाता हूँ तो जब मम्मी ब्रेकफास्ट के लिए पूछती हैं तो लगता है मजाक कर रही हैं। अब लगता है की ब्रेकफास्ट हम जैसे उल्लूँ के लिए नहीं बनाया जाता। उल्लूँ इसलिय कहा क्यूंकिअपनी दिनचर्या ही ऐसी है। आम आदमी से बिलकुल अलग।
जम्मू में हम ५ बजे ऑफिस थे और रात में दो बजे घर। सुबह १० बजे जाग जाते थे। वहां हम और भूपेंद्र साथ में थे। हम घर से ऑफिस के आलावा कही नहीं जाते थे। १५ से ५ के बीच घर से बाहर निकलने में नानी याद आने लगती थी। वहां कई सप्ताह हमें रात में सड़कों पर चमचमाती लाइट देखे हुए हो जाते थे। वीकली भी दो तीन महीने महीने में एक बार मिलती थी। कई महीने बाद छुट्टी मिलने पर रात को जरुर घमने जाते थे। तब हम सब कुछ ऐसे देखते थे मनो अभी अभी जेल से छुट कर आये हैं या फिर दूसरी दुनिया से. तब लगता थे की हमारी जिन्दागे नरक हो गई है। अपनी दुनिया ही अलग हो गई थी। सिर्फ अख़बार, अख़बार और अख़बार।
पानीपत में कई बातें खास हुईं। यहाँ भी मुझे बहुत अच्छे लोग मिले। अमित सर, नागा बाबा, लोकेश, विनोद, राजेश aur निवेदिता। सभी बहुत अच्छे। मेरा मानना है की अच्छे लोगों के साथ हमेशा अच्छा ही होता है। अब यहाँ से भी कई लोगों का ट्रान्सफर होने वाला है। डर लग रहा है की सभी का साथ छूट जायेगा।
आज बहुत दिनों के बाद इतनी देर बैठ कर लिखा हूँ। जो दिमाग में आया, लिखता चला गया. कुछ नहीं सोचा। कोशिश होगी की अब लिखता रहूँगा###