Wednesday, June 8, 2016

ये है मोदी इफेक्ट, MTCR के बाद NSG के लिए भारत का रास्ता बना रहे ओबामा!

नई दिल्ली और वॉशिंगटन डीसी की दोस्ती इन दिनों परवान पर है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिका में इतिहास रच रहे हैं। 6 दिन में पांच देशों के तूफानी दौरे पर निकले मोदी की यह कूटनीतिक यात्रा हर दिन देश को फख्र करने का अवसर दे रही है। सबसे अहम पड़ाव अमेरिका में मोदी के रहने के दौरान न सिर्फ भारत को मिसाइस टेक्नोलॉजी कंट्रोल रिजिम यानि MTCR जैसे एलिट ग्रुप में एंट्री मिली, बल्कि न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप में भी शामिल होने के आसार बढ़ गए हैं। 

 

पहले बात NSG यानि न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप की। 48 देशों का ये वो ग्रुप है जो पूरी दुनिया में परमाणु कारोबार को नियंत्रित करता है। दुनिया के कई देश इस ग्रुप में भारत को शामिल करने की मुखालफत कर रहे हैं। चीन का नाम ऐसे देशों में सबसे पहले लिया जा सकता है। उसे डर सता रहा कि भारत यदि इस ग्रुप में शामिल हो गया तो न सिर्फ पूरे विश्व में भारत का रुतबा और बढ़ जाएगा, बल्कि एशिया में वह नए सुपर पावर के रूप में उभरेगा। 



NSG में भारत के शामिल होने पर ऑस्ट्रलिया, जापान, मैक्सिको से लेकर स्विट्जरलैंड तक विरोध कर रहे थे। स्विट्जरलैंड तो इसके सख्त खिलाफ था। इन देशों का तर्क है कि परमाण अप्रसार संधि पर दस्तखत वाले देशों को ही इस समूह में शामिल किया जाए। लेकिन मौजूदा समय में न सिर्फ स्विट्जरलैंड मान गया है, बल्कि भारत के धुर विरोधी चीन के भी सुर कुछ धीमे पड़ गए हैं। स्विट्जरलैंड के राष्ट्रपति जोहान श्नीडर अम्मान ने मोदी से मुलाकात में दोस्ताना रुख दिखाते हुए NSG की वोटिंग में समर्थन का भरोसा दिया है। 


पिछले महीने मई में ही भारत ने इसके लिए आवेदन किया था। कुछ दिनों के भीतर NSG के सदस्य देशों की विएना में एक बैठक होनी है और उसके बाद जून के अंतिम सप्ताह में दक्षिण कोरिया के सिओल में भारत की दावेदारी पर वोटिंग। इसमें शामिल होते ही भारत भी कानूनन परमाणु हथियार संपन्न देश बन जाएगा। मोदी भारत को NSG में शामिल करने के लिए पूरी दुनिया में घूमकर पैरवी कर रहे हैं। विरोध करने वाले देशों को मना रहे तो मित्र देशों से और समर्थन जुटा रहे। गल्फ देश कतर से लेकर मैक्सिको तक यही उद्देश्य है। अपने तूफानी दौरे की अंतिम पड़ाव में मोदी अमेरिका से सीधे मैक्सिको पहुंचेंगे। यहां भी NSG के लिए समर्थन ही मोदी का मकसद है। जापान ने भी भारत को समर्थन देने के साथ-साथ आश्वस्त किया है कि वो और भी देशों से अपील करेगा। 


अब बात MTCR की। इस एलिट ग्रुप में शामिल होने से अब भारत न सिर्फ मिसाइल की अत्याधुनिक तकनीक हासिल कर सकेगा, बल्कि अमेरिका से प्रीडेटर ड्रोन भी खरीद सकता है। ये वही प्रीडेटर ड्रोन है जिसका इस्तेमाल कर अमेरिका ने तालिबान को नेस्तनाबूत कर दिया। हाल ही में मुल्ला मंसूर को भी अमेरिका ने इसी ड्रोन के जरिए मारा था। 


मोदी और ओबामा की दोस्ती दुनिया देख चुकी है। एक-दूसरे से जिस बेतकल्लुफी से दोनों बातें करते हैं, वो इनकी गहरी दोस्ती को दिखाता है। मोदी का दुनिया के सबसे ताकतवर शख्स को बराक से संबोधन बहुत कुछ कहता है। दोस्ती ऐसी हो तो उसका फायदा होना भी लाजिमी है। मोदी और ओबामा सात बार मिल चुके हैं। मोदी 2 साल में चौथी बार अमेरिकी सरजमीं पर हैं। भारत-अमेरिका के संबंधों को इन दोनों नेताओं ने नए आयाम दिए हैं। ओबामा का कार्यकाल खत्म होने वाला है। ऐसे में अमेरिकी कांग्रेस भी खुलकर भारत का समर्थन कर रही है। 


MTCR में शामिल होने के बाद ओबामा दोस्ती निभाते हुए अब भारत को NSG में भी शामिल कराना चाहते हैं। इसके लिए वे खुद भी वैश्विक मंच पर भारत की पुरजोर पैरवी कर रहे हैं। काबिलेगौर है कि अमेरिका जहां भारत का हर मुद्दे पर समर्थन कर रहा, वहीं पाकिस्तान की हर बात को खारिज कर रहा। अमेरिका के साथ भारत की बढ़ती ये नजदीकी पाकिस्तान के साथ-साथ चीन को भी खटक रही है। 28 अप्रैल से 13 मई तक अमेरिका के आसमान में हुए रेड फ्लैग एक्सरसाइज में सुखोई और जगुआर की गूंज से भी ये दोनों देश हैरान-परेशान दिखे थे। 


नई दिल्ली-वॉशिंगटन डीसी की दोस्ती का असर ही है कि साल 2015 में दोनों देशों के बीच 14 अरब डॉलर का रक्षा कारोबार हो चुका है। सामरिक योजनाओं पर दोनों देश एक साथ आगे बढ़ रहे हैं। पीएम मोदी ने खाड़ी देशों के साथ भी संबंधों को और मजबूती दी है। दो साल के भीतर ही उन्होंने खाड़ी के चार प्रमुख देश संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब, ईरान और हाल ही में कतर की यात्रा कर साफ संदेश दे दिया है कि कूटनीति संबंध बनाने में उनका कोई सानी नहीं है। 


दरअसल खाड़ी के इन देशों में तकरीबन 80 लाख भारतीय रहते हैं, जो 70 अरब डॉलर की भारी-भरकम राशि हर साल भारत भेजते हैं। देश की बढ़ती अर्थव्यवस्था में इसका भी बहुमूल्य योगदान है। खाड़ी देशों का सॉवरिन फंड भी इस कूटनीति की प्रमुख वजहों में शुमार है। पिछले दिनों मोदी की यूएई दौरे मे 75 अरब डॉलर भारत के ढांचागत क्षेत्र में निवेश करने का समझौता हुआ है। यूएई के पास दुनिया का चौथा सबसे बड़ा 800 अरब डॉलर का फंड है। ऐसे ही कई और खाड़ी देश हैं जो भारत में निवेश कर सकते हैं। 


कतर ने बीते रविवार को ही ताजमहल के पास लीला समूह के साथ मिलकर पांच सितारा होटल बनाने का समझौता किया है। कतर के पास दुनिया का 15वां सबसे बड़ा सॉवरिन फंड है। बीते साल यह 256 अरब डॉलर का था। मोदी की ऐसी की कवायदों का नतीजा है कि 2016 में भारत की अर्थव्यवस्था 7.6 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ी है। विदेशी निवेश के मामले में अब चीन भी पीछे हो गया है।


(इस आर्टिकल को आईबीएखबर पर भी पढ़ा जा सकता है। ये है लिंक...

http://khabar.ibnlive.com/blogs/rahul-vishwakarma/modi-and-obama-488141.html)


Thursday, May 26, 2016

ये है सपा के राज्यसभा उम्मीदवारों की लिस्ट का गणित, क्या मुस्लिम वोटों से उठा मुलायम का भरोसा?

उत्तर प्रदेश में चुनाव भले ही नौ महीने बाद होने हों, लेकिन सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह इसे लेकर अभी से एक्शन मोड में आ गए हैं। बीते कुछ दिनों में मुलायम सिंह के एक के बाद एक लिए गए फैसले बताते हैं कि इस बार यूपी का सियासी समर सपा सुप्रीमो अखिलेश एंड कंपनी के भरोसे नहीं, बल्कि अपने पुराने सिपहसालारों के बूते लड़ेंगे।

खास बात यह है कि इस बार मुलायम ने अपने भरोसेमंद मुस्लिम मतदाताओं से 2014 में मिले झटके से सबक लेते हुए नया वोट बैंक तलाश लिया है। सूबे की नब्ज पकड़ते हुए उन्होंने ऐन मौके पर अखिलेश से पूरी बागडोर लेकर खुद संभाल ली है, जो दर्शाता है कि सियासत के मैदान में फिलहाल उनसे बड़ा कोई खिलाड़ी नहीं है।
 

बेनी प्रसाद की हुई वापसी :  शुरुआत हुई बेनी बाबू से। चुनाव से ऐन पहले समाजवादी पार्टी के संस्थापकों में से एक बेनी प्रसाद वर्मा को मुलायम वापस अपने पाले में ले आए। बेनी बाबू की यहघर वापसीकई मायनों में महत्वपूर्ण है। बेनी प्रसाद को पार्टी में वापस लाकर मुलायम सिंह ने दरअसल एक तीर से कई निशाने साधे हैं। पहला, पार्टी के कथित कद्दावर नेताओं का मुगालता दूर करते हुए उन्होंने साफ संदेश दे दिया है कि वे इस बार चुनाव में अपने पुराने खिलाड़ियों पर ज्यादा भरोसा करेंगे, इसीलिए मुलायम ने एक झटके में बेनी प्रसाद को सपाई चोला पहना दिया।

दूसरा, बेनी बाबू जिस कुर्मी वर्ग से आते हैं, वो मुलायम सिंह को इस बार बड़ा वोट बैंक दिख रहा है। तीसरा, इसी वर्ग से ताल्लुक रखने वाले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी यूपी चुनाव का इंतजार कर रहे हैं। अपनी सरहद में वे भी इजाफा करना चाहते हैं। इसके लिए वे कास्ट कार्ड भी खेलेंगे। इसीलिए यूपी में उनकी आमद दिखने लगी है। नीतीश की सेंधमारी के इरादे भांप मुलायम सिंह ने पहले ही उसकी काट बेनी प्रसाद के रूप में निकाल ली। बाराबंकी के बेनी प्रसाद की पकड़ पूरे पूर्वांचल में अच्छी-खासी है, जो नीतीश के लिए बेरीकेड का काम करेगी।
 

अमिर सिंह की बैकडोर एंट्री :   दूसरा नंबर आया अमर सिंह का। मुलायम का अमर प्रेम किसी से छिपा नहीं है। सपा से 6 साल का निर्वासन झेल चुके अमर सिंह की कब घर वापसी हुई, इसकी कोई आधिकारिक घोषणा नहीं की गई। शायद इन्हें बैक गेट से पार्टी में एंट्री मिली है।

अमर की वापसी से पार्टी में उठ रहे तमाम विरोधी सुरों को दरकिनार करते हुए मुलायम ने अमर सिंह को राज्य सभा का टिकट थमाया है। अमर सिंह की पार्टी में वापसी आजम खान से लेकर रामगोपाल यादव तक को खटक रही है। इनमें चल रहा 36 का आंकड़ा जगजाहिर है। राज्य सभा में अमर सिंह को भेजने का दोनों ने खुलकर विरोध किया, लेकिन मुलायम ने फिर से अपने पुराने साथी अमर सिंह पर भरोसा जताया। पार्टी से बेदखल किए जाने पर मुलायम सिंह को कोसने वाले अमर सिंह शायद अब सोच रहे होंगे कि कुछ तो मजबूरियों होंगी उनकी, यूं ही कोई बेवफा नहीं होता।
 

मुस्लिम उम्मीदवारों से परहेज :   बात सिर्फ अमर सिंह तक नहीं है। मुलायम सिंह ने राज्यसभा के लिए बेनी प्रसाद वर्मा, अमर सिंह, संजय सेठ, सुखराम सिंह यादव, रेवती रमन सिंह, विश्वंभर प्रसाद निषाद और सुरेंद्र मागर का नाम बढ़ाया है। नागर से पहले अरविंद प्रताप सिंह का नाम सपा ने बढ़ाया था। लेकिन बाद में पूर्वांचल के साथ-साथ पश्चिमी यूपी को साधते हुए उन्होंने यहां के गुर्जर नेता सुरेंद्र नागर का नाम फाइनल कर दिया। इन सातों नामों में एक भी मुस्‍लिम नाम नहीं है। यानी मुलायम सिंह ने इस बार मुस्‍लिम वोट बैंक को नजरअंदाज किया।

आजम खान भी इस बात से खफा हैं कि उनकी कौम का एक भी नुमाइंदा नहीं भेजा गया। मुलायम को मुस्‍लिमों का नेता माना जाता रहा है, इसीलिए उन्हें मुल्ला मुलायम तक कहा जाने लगा था। मुलायम का मुस्‍लिमों से यह मोहभंग अचानक नहीं हुआ है। बीते कुछ सालों में सूबे के मुसलमान कई बार सपा सरकार से अपनी नाराजगी जता चुके हैं। दिल्ली के मौलाना इमाम बुखारी हों या फिर लखनऊ के मौलवी, सभी अखिलेश सरकार से नाखुशी जाहिर कर चुके हैं।

मुलायम को अपने सबसे भरोसेमंद वोट बैंक से तगड़ा झटका 2014 में हुए आम चुनाव में मिला। सूबे की 80 सीटों में से सपा को महज 5 पर जीत मिली। ये हाल तब है जब सपा सत्ताधारी दल है। राजनीतिक पंडितों ने भी लोकसभा चुनाव परिणाम के मायने यह निकाले कि अब सपा को मुस्‍लिम वोटरों ने खारिज करना शुरू कर दिया है। 2013 में मुजफ्फरनगर जैसे कांड मुसलमानों के मुलायम सिंह पर भरोसे को और डिगा रहे थे। एक साल बाद मुसलमानों के गढ़ में भी कमल खिलना पूरी कहानी साफ कह रहा था, जो मुलायम सिंह ही पढ़ पा रहे थे।

2014 में मुलायम बमुश्किल अपना कुनबा ही बचा सके। खुद सपा सुप्रीमो आजमगढ़ से, बहू डिंपल यादव कन्नौज से, भतीजे तेजप्रताप यादव मैनपुरी से, धर्मेंद्र यादव बदायूं से और अक्षय यादव फिरोजाबाद से जीते। बाकी 75 सीटें मुलायम सिंह को मुंह चिढ़ाती रहीं। मुसलमानों की दिन-ब-दिन बढ़ती यह नाराजगी अब तल्खी में तब्दील होती जा रही है। संभवत: इसी के मद्देनजर मुलायम ने एक भी मुसलिम कैंडिडेट राज्यसभा के लिए आगे नहीं बढ़ाया। मुस्‍लिम वोट बैंक को छिटकता देख मुलायम अब कुर्मी वोट बैंक में पैठ जमाने की कोशिश कर रहे। बेनी की पार्टी में वापसी इसी का संकेत है।
 

न शिवपाल-रामगोपाल और न आजम, अब सिर्फ मुलायम :   मुलायम ने हाल के दिनों में जो फैसले लिए हैं, उसमें न शिवपाल का दखल है, ना रामगोपाल का और ना ही आजम खान का। साफ है कि सूबे की नब्ज भांपते हुए मुलायम अब खुद निर्णय ले रहे। वे ही तय कर रहे हैं कि सियासी समर में किस सूरमा को कहां से और कैसे लड़ाना है। तमाम विरोधों के बावजूद अमर सिंह की वापसी मुलायम के इसी तेवर को दिखाती है।

वैसे भी कई बार मुलायम सार्वजनिक मंच से बेटे अखिलेश यादव से सरकार के कामकाज को लेकर नाखुशी जता चुके हैं। उन्हें इस बात का इलहाम हो गया है कि सूबे की सयानी जनता सरकार के कामकाज से खुश नहीं है। पांच साल होने को आए। सारे विकास कार्य और उत्तम प्रदेश अखबारों और टीवी पर सिमटा दिखता है। जमीनी हालात अलग कहानी बयां कर रहे।

भ्रष्टाचार, गरीबी, बेरोजगारी जैसी समस्याएं पहले की तरह ही हैं, या यों कहें कि बढ़ ही गई है। क्राइम रेट पहले से कहीं ज्यादा हो गया है। गली-मोहल्लों में कार्यकर्ताओं की शक्ल में गुंडों की फौज खड़ी हो गई है। कई बार मुलायम ने साफ-साफ शब्दों में कहा कि सपा नेता अब जनता के काम की जगह जमीन का काम कर रहे। अखिलेश ने भी सार्वजनिक रूप से कहा कि पार्टी कार्यकर्ता थाने की राजनीति ज्यादा करते हैं, लेकिन शीर्ष नेतृत्व की इस घुड़की का नीचे के कैडर पर कोई असर नहीं दिखा। लगाम लगाने की तमाम कोशिशें जब नाकामयाब हो गईं तो आखिरकार सपा सुप्रीमो ने पूरी कमान खुद संभाल ली है।

संजय सेठ बनेंगे पार्टी के कुबेर? :  अब बात करते हैं लखनऊ के बड़े बिल्डर संजय सेठ की। संजय सेठ का राजनीति से कोई सीधा सरोकार नहीं है। सवाल है कि फिर कैसे वे सपा के कोटे से राज्यसभा पहुंच गएदरअसल, विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए पार्टी को कुछ धनकुबेरोंकी जरूरत है। संजय को राज्यसभा भेजना इसी का इंतजाम माना जा रहा है।

संजय सेठ को राज्यसभा भेजने में यूपी के राज्यपाल राम नाईक का भी अहम रोल है। सपा ने इससे पहले कई बार संजय का नाम विधान परिषद के लिए भेजा, लेकिन हर बार राज्यपाल ने उनके नाम की फाइल को लौटा दिया। संजय सेठ के लिए राज्यपाल का यह तिरस्कार प्रसाद के रूप में फलीभूत हुआ।

बहरहाल, कुछ दिनों की बात और है। मुलायम सिंह ने तो अपने पुराने खिलाड़ियों पर भरोसा जताते हुए उन्हीं पर दांव खेलने की तैयारी कर ली है। अब 2017 में जनता की अदालत तय करेगी कि पहलवान मुलायम का यह दांव उल्टा पड़ा या सीधा...।


(इस आर्टिकल को आईबीएखबर पर भी पढ़ा जा सकता है। ये है लिंक... http://khabar.ibnlive.com/blogs/rahul-vishwakarma/up-election-2016-483196.html