Thursday, December 30, 2010

अमर की घुट्टी के बदले संजय की झप्पी


किसी शख्स की संपत्ति दांव पर लगी हो। कोर्ट ने उसकी संपत्ति कुर्क करने का आदेश जारी कर दिया हो। आदेश पर तामील करते हुए उसके घर और ऑफिस के बाहर पुलिस ने नोटिस चस्पा दिया हो और वह मजे में घर से सैकड़ों किलोमीटर दूर दूसरे राज्य के लोगों को सब्जबाग दिखा रहा हो, है न कुछ अटपटी सी बात। अपने संजू बाबा कुछ ऐसा ही कर रहे हैं। आज यानी 30-12-2010 को यहां गोरखपुर में सपा से निष्कासित राज्य सभा के सांसद अमर सिंह ने पूर्वांचल स्वाभिमान रैली के पहले चरण का समापन किया। अपनी ताकत का अहसास लोगों को कराने और भीड़ बटोरने के लिए लोगों को गांधीगिरी का संदेश देने वाले संजय दत्त, ‘पूर्व‘ अभिनेत्री जयाप्रदा और भोजपुरी अभिनेता मनोज तिवारी को वे ‘लोकमंच‘ पर लेकर आए। तीनों सितारों ने अमर सिंह के ही कहने पर सपा की लाल टोपी पहनी थी। और जब पार्टी में ही अमर सिंह को हाशिए पर डालते हुए उन्हें पार्टी से बेदखल कर दिया गया तो एक सच्चे मित्र की भांति तीनों ने लाल टोपी उतार फेंकी।
खैर, ये तो पुरानी बात हुई। मुद्दे पर आते हैं। दरअसल ताजा मसला यह है कि हाल ही में पूर्वांचल यात्रा शुरू होने के दौरान एक मंच से अमर सिंह ने यह कहकर कि ‘संजय को अंडरवर्ल्ड से धमकी मिल रही है‘, संजू बाबा को ही मुश्किल में डाल दिया था। तब संजय दत्त ने एक तरह से सौगंध खाते हुए कहा था कि आइन्दा से वे अमर सिंह के साथ कभी सियासी मंच पर नजर नहीं आएंगे। लेकिन आज उन्हें अपने बड़े भाई अमर सिंह को गोरखपुर में एक मंच पर जादू की झप्पी देते हुए देख अचरज हुआ। इसलिए नहीं कि उन्होंने अपनी सौगंध तोड़ दी। बल्कि इसलिए कि एक तरफ मुंबई में शकील नूरानी की शिकायत पर कोर्ट ने उनकी संपत्ति कुर्क करने का आदेश दे दिया और इधर, वे अमर सिंह और पूर्वांचलवासियों को जादू की झप्पी दे रहे हैं। आखिर कौन सी मजबूरी थी कि अमर सिंह के साथ कभी सियासी मंच पर एक साथ न आने की कसम खाने के बाद भी संजय दत्त विशुद्ध राजनीतिक कार्यक्रम में हाजिर हो गए। इस दौरान भी ज्यादातर समय वे अपने मोबाइल में ही व्यस्त रहे। शायद नूरानी की टेंशन उन्हें अंदर ही अंदर खाए जा रही थी। इसी का असर था कि एक बार भी हंसी ने उनके चेहरे पर दस्तक नहीं दी।
संजय वाकई राजनीति में अभी बच्चे ही हैं। मंच पर कुल आठ मिनट के अपने उद्बोधन के दौरान उन्होंने वही बातें कहीं जो अमर ने माइक थमाने से पहले उनके कान में बुदबुदाए थे। अमर सिंह की बातें दोहराने के बाद संजय ने कहा कि गांधीगिरी से ही यहां के लोगों को अलग पूर्वांचल राज्य मिल सकता है। हम-आप लोग संजू बाबा को सिल्वर स्क्रीन पर ही देखना चाहते हैं। वहीं पर वे अच्छे भी लगते हैं, न कि राजनीतिक मंच पर सियासी बोल बोलते हुए।
शायद अमर सिंह ने शकील नूरानी की आफत से बचने के लिए कोई घुट्टी दी होगी। तभी अमर के बुलावे पर मंुबई से फौरन उन्होंने गोरखपुर का रूख कर लिया। आफत टालने का अमर सिंह से आश्वासन मिलने पर संजय ने घुट्टी के बदले झप्पी दी।

दिल--नादां तुझे हुआ क्या है,
आखिर इस दर्द की दवा क्या है।
हम हैं मुश्ताक और वो बेजार,
या इलाही ये माजरा क्या है।।

Thursday, October 28, 2010

आखिर राहुल गांधी कब तक दर्द सहेंगे?


आज एक खबर आई कि राहुल गांधी ने हाल ही में पूर्वांचल के गरीबों की दिक्कतों को और करीब से जानने के लिए गोरखपुर से मुंबई तक का सफर ट्ेन से किया, वो भी जनरल बोगी में। सफर भी ऐसा कि गोरखपुर से मंुबई तक 36 घंटे के सफर में उन्हें न तो किसी ने देखा और न ही पहचाना। उनका पूरा दौरा इतना गुपचुप था कि मीडिया तो छोड़िये, यहां के शासन-प्रशासन को भी कानों-कान खबर नहीं हुई कि युवराज उनके जिले में हैं। हो सकता है कि उन्होंने आजीविका की तलाश में मुंबई जा रहे लोगों के दर्द को और करीब से महसूस करने के लिए भेष भी बदला हो, लेकिन है न ये थोड़ी अचरज वाली बात। राहुल के गोरखपुर की सीमा से बाहर जाने के बाद यहां के पुलिस महकमे को उनके आने की खबर मिली। राहुल के जाने के एक दिन बाद मीडिया को भी इसकी भनक लगी। राजनीतिक पंडितों और मीडिया ने राहुल के इस गुपचुप दौरे के निहितार्थ निकालने शुरू कर दिए। किसी ने कहा कि वे यहां अपने राजनीतिक कॅरियर का भविष्य जानने के लिए कुशीनगर के किसी प्रसिद्ध बाबा को अपनी कुंडली दिखाने आए थे, तो किसी ने कयास लगाया कि अपने विवाह के सिलसिले में उनका यह गुप्त दौरा है। लेकिन किसी को उनके इरादों का इल्म नहीं था। खैर, खबरनवीसों ने अपने-अपने एंगल से राहुल के इस गुपचुप दौरे की खबर छाप दी। उनके उस दौरे के दस दिन के बाद आज 28 को खबरें छन कर आईं कि राहुल बिहार में चुनावी जनसभा को संबोधित करने के बाद गोरखपुर आए थे। यहां से उन्होंने मुंबई स्पेशल ट्ेन पकड़ी और चले गए मुंबई। उनके लिए नौ एसपीजी जवानों के साथ बाजाब्ता रिजर्वेशन भी कराया गया। लेकिन राहुल को तो मुफलिसी में जी रहे मुसाफिरों का दर्द जानना था। सो वे अनारक्षित बोगी में सवार हो गए। अपने जीवन के शायद सबसे लंबे इस सफर में राहुल ने मुंबई जा रहे पूर्वांचल के मजदूर तबकों से उनकी समस्याएं पूछीं और आदतन उन्हें जल्द ही इससे निजात दिलाने का आश्वासन भी दे दिया। राहुल ने कुछ ऐसा ही कारनामा मुंबई में भी किया था। मुंबई की लोकल में सफर कर। हालांकि वह यात्रा इससे बहुत अलग थी। लेकिन तब भी कहा गया कि राहुल ने बाल ठाकरे को उनके गढ़ में ही उन्हें आईना दिखाने और आम मंुबइकर की दिक्कतों को जानने के लिए अपनी लग्जरी गाड़ी को छोड़ लोकल में सफर किया। कुछ बरस पहले उन्होंने यूपी में मेहनतकश मजदूरों के साथ खेतों में काम कर उनके भी दर्द को सहा था। कलावती के दर्द को भी महसूस किया। लेकिन राहुल जी आप कब तक आम आदमी के दर्द को सहेंगे और उन्हें महसूस करेंगे? देश में आपकी हुकूमत सी ही है। कम से कम इस दर्द को दूर करने के लिए अब तो कुछ करिए।मासूमों की मौत भी भूल गएकुछ दिन पहले राहुल गांधी ने गोरखपुर में इंसेफेलाइटिस ;जेईद्ध से दम तोड़ रहे मासूमों का रिकार्ड भी दिल्ली तलब किया था। मुझे बड़ी उम्मीद थी कि शायद अब इंसेफेलाइटिस के प्रति उदासीन रवैया अपना रही सरकार की सेहत पर कुछ असर पड़ेगा, लेकिन आज तकरीबन दो माह बीत गए। लेकिन हालात वही ढाक के तीन पात हैं। न तो राहुल ने अब तक उन मासूमों की सुध ली जो अस्पतालों में एक-एक पल जीने के लिए लड़ रहे हैं और न ही यहां के अस्पताल प्रशासन ने। यहां रोज इंसेफेलाइटिस से तीन से चार बच्चे दम तोड़ रहे हैं। जेई से बच्चों की मौतें अब यहां इतनी आम हो गई हैं कि इन मौतों पर कोई मातम भी नहीं मनाता। बहुत दुःख होता है रोज तीन-चार बच्चों की मौत की खबर पढ़कर। राहुल गांधी ने भी इस गंभीर समस्या को बड़े ही हल्के में लिया।

Thursday, May 6, 2010

मेरी अमरनाथ यात्रा - २




हमें पहलगाम कैंप में रात को ही बता दिया गया था कि सुबह सात बजे चंदनवाड़ी पहला दल रवाना होगा। लिहाजा, आप सभी साढ़े छह बजे ग्राउंड में आ जाएं। हम सुबह पांच बजे उठे। यह सोचा कि सबसे पहले हम ही तैयार होकर पहुंचेंगे। लेकिन बाहर आए तो देखा हमसे भी चौकन्ने लोग हैं। सैकड़ों लोग कतार में लगे हुए थे। हम भी लग लिए। एक-एक बंदे का नाम नोट कर बाहर भेजा जा रहा था। बाहर आए तो चंदनवाड़ी के लिए बसें लगी हुईं थी। हम तेजी से भागे और बस में सवार हो गए। यहां भी हमसे पहले कई लोगों ने बाजी मार ली थी। शुक्र है सीट मिल गई थी। इस समय तक हम समुद्र तल से ९५०० फीट की ऊंचाई पर थे। अब हम और ऊंचाई की ओर बढ़ रहे थे। पहलगाम बेस कैंप से चंदनवाड़ी के बीच १६ किलोमीटर की दूरी हमने बस से तय की। वाहन का साथ यहीं तक था। अब हमारी पद यात्रा शुरू हुई। बाबा बर्फानी की ओर जैसे-जैसे हम बढ़ रहे थे, नजारा और मनोहारी होता जा रहा था। हर बार लगता कि इससे सुंदर नजारा हो ही नहीं सकता लेकिन कुछ लम्हों बाद हम गलत साबित होते। प्रकृति का एक और नायाब चेहरा हमें निहारता और हम उसे, अपलक। चन्दनवाड़ी में फिर कतार लगानी पड़ी। यहां तक जम्मू से सभी भक्तों को एक साथ रखा गया था। इसके बाद सभी को अलग अलग छोड़ दिया गया था। सभी अपने-अपने ग्रुृप के साथ स्वच्छंद थे। बाबा के नारे लगाते हुए आगे बढ़े जा रहे थे। कुछ दूर तक तो रास्ता सीधा-साधा था, लेकिन उसके बाद एकदम से पथरीला और ऊंचाई की ओर जाता रास्ता हमारा इंतजार करता दिखा। देखकर लगा कि यह रास्ता कैसे पार होगा। रास्ता भी वाकई देखने में बेहद पथरीला था। ऐसा रास्ता जो लाठी का सहारा न लें तो आप लुढ़कते हुए प्रारब्ध में पहुंच जाएंगे। शिवशंकर का नाम लिया और शुरू कर दी चढ़ाई। ग्रुप में चूंकि मैं सबसे यंग, पतला दुबला और शायद फुर्तीला था, इसलिए सरपट भागे जा रहा था। आगे जाकर अपने साथियों को प्रोत्साहित कर जल्दी पांव बढ़ाने को कहता। चंदनवाड़ी से तीन किलोमीटर दूर पिस्सूटॉप हमारा अगला पड़ाव था। शुरुआत में जो उत्साह था वो इस एडवेंचर भरे रास्ते को देख कुछ समय तो कायम रहा, लेकिन कुछ घंटे बीतने के बाद थकान हावी होती गई। हम निरंतर ऊंचाई की ओर बढ़ रहे थे। शुरू के तीन किलोमीटर में ही हमारी हालत खस्ता हो गई। ऐसा लग रहा था मानों कई दिन से चल रहे हों। लंबी ट्रैकिंग के चलते हम लोगों ने बेहद हल्का-फुल्का नाश्ता किया था। कुछ घंटों की पदयात्रा कर हम पहुंच गए अपने पहले पड़ाव पिस्सूटॉप पर। यहां दूर-दूर तक इतना ऊंचा पहाड़ नहीं दिख रहा था। ११००० फीट की ऊंचाई पर पहुंचकर तीन दिशाओं की ओर देखा तो लगा कि यही सबसे ऊंची जगह है। लेकिन मुड़कर चौथी दिशा की ओर देखा तो ऊंचा पर्वत अकड़ा हुआ हमें डरा रहा था। हमारी अगली मंजिल जोजीबल का रास्ता इसी पहाड़ के पीछे से था। पहाड़ को काटकर बनाई गई पगडंडी नुमा रास्ते से होते हुए हम बढऩे लगे। यहां रास्ता इतना तंग था कि एक साथ तीन लोगों का भी चलना दुश्वार था। एक कदम भी लडख़ड़ाने पर पता नहीं कितने हजार फीट नीचे दफन हो सकते थे। सावधानी बरतते हुए हम जोजीबल पहुंचे। इसके बाद अगली मंजिल नागकोटि थी। दोपहर तक हम यहां पहुंच चुके थे। सांझ होते-होते हम ११७०० फीट ऊपर शेषनाग पहुंचे। पिस्सूटॉप से यहां तक का सफर ११ किलोमीटर था। यहां आने तक हमारे शरीर का कचूमर निकल चुका था। यहां भी भोले का भंडारा लगा था। हम लोगों ने तय किया कि रात यहीं बिताई जाएगी। शेषनाग में तीन ओर से पहाड़ों से घिरा एक तालाबनुमा कुंड दिखा। पहाड़ों पर पड़ी बर्फ पिघलकर उसका पानी इसी कुंड में समा रहा था। वह दृश्य विहंगम था। किवदंती है कि नागपंचमी के दिन इस कुंड में भगवान शेषनाग दर्शन देते हैं। कुंड का पानी बेहद स्वच्छ और निर्मल लग रहा था। हमने उसी दिन उस कुंड में भगवान शेषनाग के दर्शन करने की चेष्टा की। मन ही मन उनका प्रतिबिंब बनाकर उसे तालाब में देखने असफल कोशिश की। खुद पर खीझ आई कि नागपंचमी के दिन यहां क्यों नहीं आए। हाथ जोड़कर मैं आगे बढ़ गया।
शेषनाग में अमरनाथ बोर्ड की ओर से रुकने का प्रबंध किया गया था। यहां दो कलाकार शंकर और पार्वती का स्वांग भी कर रहे थे। हम लोग वहीं धूनी रमाए बैठे रहे। कुछ ही देर में बारिश होने लगी। यहां मौसम पल-पल इस कदर रंग बदल रहा था जैसे गिरगिट। हमें तनिक भी भान न था कि यहीं बारिश हो जाएगी। हम टेंट की ओर भागे। बारिश के बाद ठंड भी यकायक बढ़ गई। कंपकंपी छूटने लगी। थकान इतनी जबरजस्त थी कि मैं बिना कुछ खाए-पिए ही सो गया। साथियों ने जगाने की कोशिश की, लेकिन मैं कहां जागने वाला था। मेरी कुंभकरणी नींद भोर में ही टूटी।

दूसरा दिन चलते-चलते ही बीत गया। जारी...

Saturday, May 1, 2010

मेरी अमरनाथ यात्रा -1






कई दिनों से सोच रहा था कि अपनी अमरनाथ यात्रा को लिपिबद्ध करूं। लेकिन मौका ही नहीं मिल रहा था। अब तीन साल बाद यह अवसर आया है। यात्रा बेहद रोमांचकारी रही। इसे लिखते हुए मैं यात्रा के दौरान बिताए हर पल को दोबारा जी रहा हूं।
वर्ष २००७ जुलाई के पहले सप्ताह में बाबा बर्फानी के दर्शन को निकले थे। यात्रा पर रवाना होने से कई सप्ताह पहले ही योजना बनानी शुरू कर दी थी। मन में गुदगुदी होती थी। पहाड़ों पर चढऩे के लिए स्पेशल शूज़, बैग, रेन कोट और न जाने क्या-क्या सामान खरीदे। बनारस से कुछ लोग आए थे। हम सात लोगों का ग्रुप था। उनमें कई मीडियापर्सन थे, जो हरिगोविंद जी के जानकार थे। दो-तीन जुलाई की बात है। यात्रा पर जाने की तारीख आ गई। ऑफिस से बड़ी मुश्किल से यात्रा के लिए छुट्टी मिली। इसके लिए अपने सहयोगी सुमित और अश्वनी जी का तहे दिल से शुक्रगुजार हूं।
सुबह पांच बजे हमारी बस जम्मू के बेस कैंप से पहलगाम के लिए रवाना होनी थी। रात दो बजे काम खत्म कर रूम पर पहुंचा। सामान बांधा और अपने अज़ीज़ भूपेंद्र जी के साथ तीन बजे तक बस स्टैंड के पास स्थित स्टेडियम में बने बेस कैंप पहुंच गए। हमारे दल के बाकी साथी वहीं इंतजार कर रहे थे। लंबी लाइन में लगने के बाद स्टेडियम में घुसने का नंबर आया। वहां दल के अन्य सदस्यों से परिचय हुआ। सभी अलग-अलग एज ग्रुप के थे। यहां भी मैं सबसे छोटा था। स्टेडियम का माहौल अद्भुत था। पिछले कई महीने से लगातार काम करके थक चुका था। यह माहौल बहुत सुकून पहुंचा रहा था। स्टेडियम में चाय पी, साथियों को पिलाई। फिर अपने नंबर की बस में जाकर बैठ गए। सुबह ठीक पांच बजे हमारी बस रवाना हो गई। बाबा बर्फानी के जयकारों के साथ जम्मू से नगरोटा होते हुए हम पहलगाम की ओर रवाना हो गए। कुछ देर सकुचाने के बाद मैं भी जोर-जोर से 'बोल बमÓ के जयकारे लगाने लगा।
माता वैष्णो देवी के कई बार दर्शन कर चुका हूं। वैष्णो देवी तक के रास्ते से तो परिचित था। उसके आगे पहली बार जा रहा था। रास्ते भर ऊंचे पहाड़, बंदर और ऐसे सुंदर जानवर जिन्हें मैंने पहले कभी नहीं देखे, बरबस अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे। बस में बैठे हुए विश्वास ही नहीं हो रहा था कि वाकई बाबा के दर्शन को जा रहा हूं। दरअसल, यात्रा पर आने के लिए कम से कम सात दिन की छुट्टी चाहिए थी, जो मुझे मिल नहीं रही थी। मेरे साथियों ने काफी पापड़ बेले, तब जाकर मुझे छुट्टी मिली थी। उधमपुर क्रॉस करने के बाद वाकई लगने लगा कि हम जन्नत में बसे बाबा के दर्शन को निकले हैं। पत्नीटॉप में तो बस में भी लग रहा था मानो एसी रूम में बैठे हों। चिपचिपाती-बिलबिलाती गर्मी हमसे कोसों दूर थी। रास्ते भर हम इस रूमानी सफर और मौसम का लुत्फ लेते रहे। हम लोगों के साथ कई बसों का लंबा काफिला चल रहा था। जिप्सी में सवार आर्मी के जवान हमें स्कॉर्ट करते हुए चल रहे थे। रास्ते में एक जगह बस कुछ देर के लिए रुकी तो हम सभी कमर सीधी करने और हसीन वादी को और करीब से महसूस करने के लिए उतर गए। लेकिन कुछ ही पलों में आर्मी के जवान सीटी बजाते हुए हमें एक तरह से खदेड़ते हुए फौरन बस में बैठने का इशारा करने लगे। हम भी मारे डर के दुम दबा के भागे और बस में जा दुबके।
कुछ देर बाद आया विश्व प्रसिद्ध जवाहर टनल। बनिहाल और काजीगुंड के बीच पीरपांजाल की पहाडिय़ों के सीने को चीरकर बनाई गई लगभग ढाई किलोमीटर लंबी यह सुरंग इंजीनियरिंग का नायाब नमूना है। इस सुरंग को पार करने में हमें तकरीबन पांच मिनट लगे। सुरंग में घुप्प अंधेरा था। यही सुरंग कश्मीर घाटी को पूरे देश से जोड़ती है। जम्मू प्रॉविंस और कश्मीर प्रॉविंस को यह सुरंग ही अलग करती है। सुरंग पार करते ही मानो पूरी आबोहवा एकदम से बदल गई। उस पार पहुंचते ही कश्मीरियत झलकने लगी। मौसम में यकायक बदलाव आ गया। एक खास बात। रास्ते में जगह-जगह बाबा के भक्तों के लिए भंडारे की व्यवस्था थी। सुरंग पार करते ही बस रुकी और हम भंडारे की ओर भागे। सुबह से सिर्फ मन ही भरा था, पेट खाली था। सो, यहां हमने पेट भरने में जरा भी संकोच नहीं किया और जी भर कर खाया। वाकई, भंडारे के खाने में स्वाद अपने आप आ जाता है। लज़ीज़ खाना था। आज भी वह स्वाद याद है। दोपहर तीन बजे के करीब हम अपनी मंजिल के और करीब पहुंच चुके थे। काजीगुंड के बाद आया अनंतनाग। यहां से हम पहलगाम में बने बेस कैंप की ओर रवाना हुए। शाम करीब पांच बजे हम पहलगाम में बने बेस कैंप पहुंच गए।
यहां कड़ी सुरक्षा-व्यवस्था के बीच कैंप में दाखिल हुए। कैंप में एसटीडी की सुविधा थी। सो, पहुंचते ही सबसे पहले घर में सभी को इत्तला किया कि हम सकुशल पहलगाम पहुंच गए हैं। इसके बाद हम आसपास के प्राकृतिक सौंदर्य को निहारने कैंप से बाहर निकले। बाहर का नजारा अद्भुत, अलौकिक और अप्रतिम था। अस्तांचल सूर्य की पीली रोशनी पहाड़ पर जमी बर्फ से जब टकरा रही थी तो ऐसा लगा मानो पहाड़ पर सोना पड़ा हो। उस दृश्य को मैं शब्दों में बयां नहीं कर पाउंगा। हम और आगे बढ़े। कैंप के ठीक सामने लिद्दर नदी बह रही थी। नदी जितनी शांत थी, उतनी ही शीतल। नदी देखकर मन ललचा गया और हम नहाने की तैयारी करने लगे। नदी के पास पहुंचे तो वहां पहले से दो युगल पानी में अठखेलियां कर रहा था। हम लोगों ने उनसे थोड़ी दूरी बनाते हुए अपना अड्डा कुछ और आगे बनाया। पानी में हाथ डालते ही नानी याद आ गई। नहाने का ख्याल तो भूल ही गए, हाथ-पांव भी धोने में कंपकंपी छूटने लगी। इतना ठंडा पानी कि खड़े होना भी मुश्किल हो गया था। मैंने पत्थर पर आसन जमाया और आसपास के नजारे को बेहद तफसील से निहारा और इन खूबसूरत वादियों को आंखों में कैद करने की कोशिश करने लगा। कैमरा हम साथ लाए थे। कई फोटो शूट किए। कैंप हमारा पूरी तरह महफूज़ था। कैंप के दोनों और ऊंची पहाडिय़ां थीं और कुछ घने जंगल। इससे पहले कई बार आतंकी इसी जगह पर ग्रेनेड हमला कर कई भक्तों की जान ले चुके थे, सो हमारा डरना लाजमी था। शाम ढलने लगी और हम अपने कैंप लौट आए। यहां कुछ हल्का-फुल्का खाया और कैंप में निढाल हो दिन भर की थकान उतारने को पसर गए। कुछ घंटे बाद उठे और फिर खाना खाया। खाना क्या खाया, अगड़म-बगड़म जो दिखा सो ठूंस लिया। यहां बहुत बड़ा भंडारा था। सैकड़ों स्टॉल थे। सभी पर अलग-अलग व्यंजन। देश भर से आए भक्तों को उनकी पसंद का खाना परोसा जा रहा था। यह सब होते-होते आठ बजे गए। हम वापस अपने कैंप में लौट आए। यात्रा का पहला दिन इस तरह गुजर गया।
जारी...  #AmarnathYatra #jammuandkashmir #bhole #shivshankar

Monday, April 19, 2010

नई दुनिया में पहला कदम-२


जम्मू में हरिगोविंद जी का साथ मिला तो मैंने भगवान का शुक्रिया अदा किया। उन्होंने मेरी हौसलाफजाई की और अपने साथ रूम पर ले आए। मैं इस 'युद्धभूमिÓ में अपने पूरे साजोसामान (बेडिंग और जरूरी सामान) के साथ आया था। रूम पर दो और उजाला वाले मिले। दिनेश जी और संजीव जी। दोनों ही बेहतरीन। परिचय हुआ। शाम को उनके साथ ही उजाला ऑफिस गए। २३ मार्च २००६ तारीख थी। पहले दिन ऑफिस जाते समय बहुत नर्वस था। मन ही मन जाने कहां-कहां के $खयाल आने लगे। ऑफिस की सीढिय़ां चढ़ते हुए डर रहा था। मेरी पहली जॉब, जाने कैसे लोग मिलेंगे, क्या पूछ बैठेंगे, मैं क्या जवाब दूंगा... जैसे सैकड़ों सवाल मेरे मन-मस्तिष्क को झकझोर रहे थे। ऑफिस में दाखिल होते ही सबसे पहले मेरा सामना हुआ प्रदीप मिश्रा सर से। पहली मुलाकात में उन्होंने मुझे बहुत सहज कर दिया। मेरा नाम पूछा। उन्हें मेरे आने की संभवत: पहले से ही जानकारी थी। मुझे संपादक जी के आने का इंतजार करने को कहा। संपादक रवींद्र श्रीवास्तव जी आए। मुझे केबिन में तलब किया गया। पहले मुझे देखते ही शायद उन्हें भी अचरज हुआ। संक्षिप्त बातचीत हुई। उसके बाद मुझे पहले पन्ने पर सहयोगी के रूप में काम दिया गया। पहला दिन ठीक-ठाक गुजर गया। फिर रात में अखबार छूटने के बाद मेरा सभी सहकर्मियों से परिचय हुआ। सभी मुझे और मेरी उम्र देखकर ताज्जुब कर रहे थे। संपादकीय टीम में मैं वहां सबसे छोटा था। धीरे-धीरे काम समझता गया और दिन बीतने लगे। बीच-बीच में संपादक जी बुलाते और कहते तुम मुझे सच बताओ, तुम घर से झगड़ा करके तो यहां नहीं आए हो?
उन दिनों मेरे पास मोबाइल नहीं था। मैं रोजाना एक पीसीओ से घर बात करता था। वहां सभी को मेरी बहुत फिक्र रहती थी। इस दौरान ऑफिस में ही कुछ लोगों ने कहा कि ये तेरी पढ़ाई-लिखाई की उम्र है। यहां क्या करने आ गया... घर से इतनी दूर। शुरू में मुझे अटपटा लगा। कभी-कभी उनकी बातें भी सही लगती थीं। लेकिन बाद में फिर सोचता कि जो काम आज से दो साल बाद करना है, उसे करने का अभी मौका मिले तो क्या हर्ज है। सो इन बातों को दरकिनार कर खुद को अपडेट करने लगा। इसी दरम्यान मुझे अब तक का सबसे अच्छा दोस्त मिला। भूपेंद्र। कद-काठी हूबहू मेरी जैसी। उसने मुझे बहुत सिखाया। उसके बाद प्रदीप सर। उन्होंने भी मुझे बहुत कुछ सिखाया। उनकी याददाश्त तो माशाअल्ला... तीन महीने पहले की खबर भी उन्हें याद रहती थी कि फलां खबर फलां पेज पर सेकेंड स्लॉट में बाएं हाथ पर लगी है। ऑफिस में सभी डरते थे। मैं भी... लेकिन बाद में उनसे ही बातें करने में अच्छा लगता था। इसके अलावा राजेश राठौर सर और उमेश सर मेरे लिए बहुत सम्माननीय हैं। इन्होंने भी मुझे बहुत कुछ सिखाया। इन लोगों के साथ काम करने में बड़ा मजा आया। धीरे-धीरे एक-एक कर सभी लोग बिछड़ते गए। भला हो एलेक्जेंड्रा ग्राहम बेल का, जिन्होंने टेलीफोन बनाया। वरना, इन लोगों से बातें कैसे होती।
कुल मिलाकर जम्मू में मैं तीन साल रहा। तीन साल के दौरान एक और मेरे लिए बड़ी उपलब्धि रही। यहां मैंने वर्ष २००७ में अमरनाथ यात्रा की। बेहद रोमांचकारी अनुभाव था। बाद में तफसील से बताऊंगा। यादगार अनुभव था। जम्मू में मेरी जिंदगी का बेहद खुशगवार और निर्णायक समय बीता। यहां काफी कुछ सीखने को मिला। उसके बाद अब दैनिक भास्कर के साथ नई पारी शुरू की। यहां फिलहाल नॉट आउट दस महीने हो गए हैं।
आगे देखते हैं... कहां है अगला ठौर।

Wednesday, April 7, 2010

नई दुनिया में पहला कदम-1

बात जनवरी २००६ की है। ग्रेजुएशन कंप्लीट करने के बाद मुझमे थी जिंदगी में औरों से कुछ अलग करने की सनक और कुछ नया करने की ललक। बचपन से ही मुझे अपने कोर्स से ज्यादा अखबार और पत्र-पत्रिकाएं पढऩे का शौक रहा है। कोर्स से इतर किताबें पढऩे पर मैं कई बार अपने घरवालों से डांट-डपट भी सुन चुका हूं।
जनवरी में मैं कानपुर अपने ननिहाल में था। तभी मुझे अपने परिचित से पता चला कि अमर उजाला में जॉब है। मैंने फटाफट अपना सीवी तैयार किया और भेज दिया अमर उजाला के मेल पर।
कई दिनों तक कोई रिस्पांस न आने पर मैंने उजाला के समूह संपादक शशि शेखर जी के पीए विकास गौड़ से बात की। उन्होंने मीठी गोली देते हुए कहा कि सीवी शार्ट लिस्ट की जा रही हैं। आपको कुछ दिनों में बता दिया जाएगा। मन मसोस कर रह गया, पर हिम्मत नहीं हारी। इस दौरान मैंने जमकर तैयारी शुरू कर दी। मसलन सभी समसामयिक गतिविधियों पर पैनी नजर। इंग्लिश, हिंदी सभी मैगजीनों को पढऩा, सभी अखबार चाटना वगैरह-वगैरह।
अगले 15 दिनों तक कोई फोन न आने पर फिर विकास जी को फोन किया। उन्होंने इस बार थोड़ी और चाशनी में भिगोकर पहले से मीठी गोली दी और कहा कि दो-चार दिनों में आपको कॉल किया जाएगा। यह सुन मैं बड़ा खुश हुआ। अपनी ओर से तैयारी शुरू कर दी।
मन ही मन अपने सपने बुनने लगा। लेकिन वे कई दिन और मुझे यूं ही झेलाते रहे। मैं फोन करता और वे वही पुराना रटा-रटाया जवाब दे देते। तब मैंने निश्चय किया कि ऐसे तो ये महाशय लोग मुझे टरकाते रहेंगे। पर मैं भी कम कहां था।
घर में बात की और पांच मार्च को सुबह चार बजे दिल्ली के लिए रीवा एक्सप्रेस पकड़ ली। कमबख्त अच्छी भली ट्रेन भी उसी दिन लेट होना था। १० घंटे का सफर १९ घंटे में पूरा हुआ। रात साढ़े ग्यारह बजे में बुआ के घर पहुंचा। रात भर नींद नहीं आई। सुबह फटाफट तैयार हुआ और निकल गया मेरठ अपने शुभचिंतक रमेश जी के घर। उन्होंने मेरी सीवी को और अपडेट किया और आशीर्वाद के साथ अमर उजाला के ऑफिस भेजा। (मुझे जर्नलिस्म में लाने वाले रमेश जी हैं। उनकी एक खास बात है। वे बहुत ही यथार्थवादी हैं। वे हमेशा प्रैक्टिकल बातें ही करते हैं। उन्होंने ही मुझे बूस्ट अप किया।)
उन दिनों उजाला का दफ्तर मेरठ में ही हुआ करता था। डरते-सकुचाते हुए मैं दोपहर में ऑफिस पहुंचा। वहां रिसेप्शन में दो लोग बैठे थे। मैंने उनसे कहा मुझे शशि सर से मिलना है। मेरा इतना कहा था कि उन्होंने मुझे इस कदर ऊपर से लेकर नीचे तक देखना शुरू कर दिया मानो मैंने कोई बहुत बड़ा अपराध कर दिया हो। खैर उनकी यह प्रतिक्रिया भी एक हद तक वाजिब थी। तब मेरी उम्र महज बीस साल थी। शरीर से मैं वैसे ही 'सूमो पहलवान टाइप का था। उनके दिमाग में यह बात तो जरूर आई होगी कि यह बालक 'बॉसÓ से क्यों मिलना चाहता है। (शशि जी को सभी 'बॉसÓ ही कहते थे)
खैर, मैंने उन्हें बताया कि मैं इलाहाबाद से उनसे मिलने के लिए आया हूं। इस पर उन्होंने थोड़ा सोचा और विकास गौड़ को फोन कर बताया। उन्होंने मेरी विकास से बात कराई। विकास को जरा भी भान न था कि मैं मेरठ तक चला आऊंगा। उसने कहा 'आप यहां तक क्यों आ गए। मैंने पहले ही कहा था कि आपको हम खुद ही फोन कर बताएंगे। मैंने कहा कि मैं दिल्ली आया था। सो यहां भी शशि सर से मिलने चला आया। तब विकास ने कहा कि 'बॉसÓ तो आज आए नहीं हैं। आप कल सुबह नोएडा ऑफिस आ जाइएगा। मरता क्या न करता। निराश हो मैं उल्टे पांव रमेश जी के घर लौट आया। रमेश जी ने कहा, कोई बात नहीं कल नोएडा चले जाना। फिर भागा दिल्ली। रात भर उधेड़बुन में लगा रहा। मन में पहाड़ सरीखे बड़े-बड़े सवाल आने लगे। सुबह-सुबह घर से निकल गया। एक तो दिल्ली कभी आया नहीं। उस पर यहां इतने जूते घिसने पड़ रहे थे कि नया जूता भी रहम करने की दुहाई देने लगा था। अंजान जगहों पर लोगों से पूछ-पूछ कर पहुंचना। ये सब इससे पहले कभी नहीं किया। एक बार तो मन किया कि छोड़ो ये सब चकल्लस। लौट चलें वहीं इलाहाबाद। लेकिन फिर लगा कि अभी लौटा तो फिर शायद ऐसा मौका कभी नहीं आए। सो दृढ़निश्चय कर नोएडा की बस पकड़ी और अंदाजन ऑफिस के आसपास उतर गया। वहां से पूछते-पाछते उजाला दफ्तर पहुंचा।
रास्ते भर आने वाले पलों की झलकियों का एहसास करता रहा। ऑफिस पहुंचा तो वहां भी सबसे पहले सिक्योरिटी गार्ड से ही पाला पड़ा। उसे भी सुनाई अपनी रामकहानी। तब उन्होंने मुझे फारवर्ड किया। एक घंटे इंतजार करने के बाद मुझे रिसेप्शन पर बुलाया गया। वहां एक स्मार्ट सी महिला और पुरुष बैठे थे। मुझे देखकर उनके चेहरे पर भी आश्चर्य सरीखा भाव आ गया। मैं डर गया कि किस दुनिया में आ गया। नए-नए अजीबोगरीब लोगों से पला पड़ रहा और ऐसा कि खुद की स्थिति हास्यास्पद सी लग रही। शायद उस महिला ने मेरे मन को पढ़ लिया। उसने मुझे बुलाया और तफसील से बात की। मैंने उसे भी अपना सीवी थमाया। उसने सीवी चपरासी को दिया। सीवी लेकर चपरासी अंदर किसी दूसरे हाल में चला गया। करीब आधे घंटे बाद महिला ने मुझसे कहा कि आपको कल मेरठ इंटरव्यू के लिए बुलाया गया है। यह सुनते ही मेरे दिमाग के फ्लैशबैक में तेजी से पिछले तीन दिन घूम गए। सोचा, इतने पापड़ सिर्फ इंटरव्यू की कॉल के लिए बेलने पड़े। खैर, चुपचाप उठा और उस महिला का धन्यवाद करते हुए बाहर निकल आया।
फिर वही मशक्कत। नोएडा से दिल्ली भागा, इस जल्दबाजी में कि कल फिर मेरठ जाना है। रमेश जी को सारी बातें बताईं। उन्होंने कुछ टिप्स दिए। अगले दिन का मैं बेसब्री से इंतजार कर रहा था।
आठ मार्च को सुबह उठा और फिर मेरठ के लिए रवाना हुआ। रास्ते में दो-चार जो भी अखबार उजाला, हिंदुस्तान, जागरण, टाइम्स ऑफ इंडिया और हिंदुस्तान टाइम्स मिला, उसे ले लिया और रास्ते भर पढ़ता गया। अगल-बगल की सीट वाले मुझे बड़े ही अचरज भाव से देख रहे थे कि ये लड़का इतने अखबारों का क्या करेगा। फिर मुझे इतनी तल्लीनता से पढ़ते देख एक ने पूछ ही लिया, इंटरव्यू देने जा रहे हो क्या? मैंने भी सिर हिलाया और फिर मन ही मन रट्टा मारने लगा। मेरठ में सीधा मोहकमपुर स्थित उजाला के ऑफिस गया। इस बार पहले के मुकाबले थोड़ी कम घबराहट थी। रिसेप्शन पर बताया कि मुझे इंटरव्यू के लिए नोएडा से भेजा गया है। वहां से मुझे एक सज्जन दीक्षित सर के पास ले गए। मुझे बताया गया कि वही मेरा इंटरव्यू लेंगे।
दीक्षित सर के पास पहुंचा तो उन्हें देख कर चौंक गया। लगभग 55 बरस के दीक्षित जी को पैरालिसिस था। उनका हाथ ही कुछ हद तक चलता था। थोड़ा बहुत शरीर भी घूम जाता था। वो जिस कुर्सी पर बैठे थे वो भी उनकी सहूलियत के हिसाब से मोडिफाई की गई थी। खैर, मैंने नमस्ते किया और उन्होंने बैठने का इशारा। वहां पहले से ही एक लड़की बैठी थी। वो भी हमउम्र ही थी। पहले रिटेन टेस्ट लिया आधे घंटे का। उस लड़की ने मुझसे पहले ही कंप्लीट कर लिया। मुझे तो लगा कि बाजी हाथ से गई। हम दोनों को इंतजार करने को कहा गया। थोड़ी देर बार लड़की से कहा कि उसे फोन कर इत्तला किया जाएगा। अब मेरी बारी थी। मुझे कहा गया कि आप शाम पांच बजे तक वापस ऑफिस आइए। ये सब नाटकबाजी होते-होते दोपहर एक बजे गए थे। मैंने सोचा कि ये चार घंटे कैसे बिताऊं। फिर रमेश जी के यहां चला गया और उत्सुकता लिए चार बजे ही ऑफिस आ गया। दो घंटे फिर इंतजार कराया गया। तब कहा गया आपको बॉस बुला रहे हैं। तब मुझे नहीं मालूम था कि शशि शेखर जी किस शक्शियत के व्यक्ति हैं बस इतना पता था कि अमर उजाला समूह के चीफ हैं। इससे ज्यादा कुछ नहीं।
बेधड़क और सहज भाव से उनसे मिलने पहुंच गया। सात से आठ मिनट की उनसे बातचीत हुई। उन्होंने भी मुझे ऊपर से नीचे तक देखा। फिर उन्होंने सवाल किये, पत्रकारिता में क्यों आना चाहते हैं? क्या विजन है? आदि-आदि। फिर उन्होंने पूछा- जम्मू जाओगे? तब मैं सोचा कि हो सकता है यूपी में कोई छोटा-मोटा इलाका हो, मगर आशंका थी, सो पूछ लिया 'जम्मू-कश्मीरÓ? उन्होंने कहा, हां, वहां जाओ, तुम्हारी ग्रूमिंग होगी। घर से निकलो। दुनिया देखा और दुनियादारी सीखो। मैं एक पल के लिए ठहरा और फिर बिना समझे-बूझे हां कह दिया। उन्होंने कहा, तो ठीक है... कब जाओगे? मैंने कहा, सर होली 18 को है। होली घर में खेल कर जाना चाहता हूं। उन्होंने स्वीकृति दे दी। उन्होंने कहा कि वहां जाओ वहां संपादक रवींद्र श्रीवास्तव को रिपोर्ट करो। बाकी बातें विकास समझा देगा। मैं इस समय तक सातवें आसमान पर था। चेहरे की खुशी देख कर ही विकास जी ने भी बधाई दी और आगे की प्रक्रिया समझाते हुए जम्मू ऑफिस का एड्रेस दिया और कहा कि होली के फौरन बाद जाकर ज्वाइन कर लेना। मैंने कहा ठीक है।
खुशी में झूमते हुए मैं ऑफिस से बाहर आया। ठीक सामने एक पीसीओ था। सबसे पहले यह खुशखबरी बुआ को दी। उसके बाद रमेश जी और फिर घर। सभी खुश हुए जानकर कि चलो एक प्लेटफार्म मिला। तब तक मैंने घर में यह नहीं बताया था कि मुझे जम्मू जाना है। रमेश जी से मिला और दिल्ली भागा। आते समय जो रास्ता अखबार पढ़ते-पढ़ते पता ही नहीं कब कट गया था, वही रास्ता जाते समय काटे नहीं कट रहा था। हर पंद्रह मिनट बाद उकताहट में बस की खिड़की सिर बाहर निकाल दिल्ली देखने की कोशिश करता था कि अब आ गया। दो घंटे की अझेल यात्रा खत्म हुई और आईएसबीटी से शालीमार बाग की बस पकड़ी और घर पहुंचा। बुआ बेहद खुश दिख रहीं थीं। नौ को बुआ के यहां दिन भर कमर सीधी की और शाम को श्रमशक्ति पकड़ इलाहाबाद का रास्ता नाप दिया। घर पहुंचा तो लगा कि वहां भी सब मानो मेरा ही इंतजार कर रहे थे।
कुछ देर जश्र का दौर चला। बाबा-दादी, ताऊजी-ताईजी, मम्मी-पापा, चाचा-चाची और बुआ, सभी बेहद खुश थे। बाद में मैंने जम्मू की बात बताई तो मम्मी और दादी का चेहरा उतर गया। कानपुर में मेरे ननिहाल भी यह बात बताई तो उन्होंने भी नाखुशी जताई। मेरे खानदान में भी किसी ने इतनी दूर जाकर जॉब करने की नहीं सोची थी। हां, बाबा जी जरूर लुधियाना में कुछ दिन रहे थे। ताऊजी का तो हर तीसरे दिन दिल्ली आना लगा रहता था। लेकिन जम्मू, यह बात किसी को आसानी से हजम नहीं हो रही थी। उस दौरान जम्मू को लोग जम्मू-कश्मीर ही बोलते थे। और कश्मीर का नाम जुबां पर आने के बाद लोगों के मन-मस्तिष्क में वहां की खूबसूरत वादियों को छोड़ हाथ में एके-४७ लिए खतरनाक चेहरे वाले आतंकी ही आते थे।
बहरहाल, बड़ी मान-मनौव्वल के बाद मम्मी को समझा पाया कि पहला ब्रेक मिल रहा है। जो काम मुझे दो या तीन साल बाद करना है, उसे अभी क्यों न किया जाए। मेरी जिद के आगे एक तरह से झुकते हुए उन्होंने अपनी रजामंदी दी (शायद कलेजे पर पत्थर रखकर)।
इसके बाद शुरू हुई जम्मू जाने की तैयारी। बेडिंग, बिस्तर, बर्तन, किताबें, कपड़े और भी कुछ जरूरी सामानों की पैकिंग होने लगी। १८ को होली थी। लेकिन इस बार जॉब की खुशी के आगे होली की खुशी काफूर हो गई। जम्मू जाने के लिए रिजर्वेशन कराया गया। मुझे जम्मू छोडऩे के लिए ताऊजी-ताईजी, सौरभ, मेरी बहन भी साथ में चले। उन्होंने कहा कि चलो तुम्हारे साथ-साथ हम भी माता वैष्णो देवी के दर्शन कर लेंगे। इलाहाबाद स्टेशन पर तो पूरा परिवार ही आया था। प्लेटफार्म पर गुजरे १०-१५ मिनट बहुत भारी पड़ रहे थे। मन ही मन रोए जा रहा था। मां की आंखें भर आईं थी।
सभी का आशीष लेकर चल दिया अपनी नई दुनिया की ओर। शाम को दिल्ली पहुंचे और वहां से रात को जम्मू मेल पकड़ी जो सुबह ११ बजे जम्मू पहुंची। वहां से हम फौरन कटड़ा रवाना हो गए। ये मेरी माता रानी के दरबार में दूसरी हाजिरी थी। इससे पहले ९४ में भी आया था। माता के दर्शन कर अगले रोज हम शाम को जम्मू पहुंचे। स्टेशन पर ताऊ जी को छोड़कर सभी वहीं वेटिंग रूम में रुक गए। इस बार भी लगा कि अब सबसे बिछड़ रहा हूं। ताऊ जी के साथ यूएनआई में काम कर रहे हरिगोविंद जी के पास रिहाड़ी पहुंचा। इनका पता रमेश जी ने ही दिया था। ताऊजी ने मुझे एक तरह से सुपुर्द करते हुए कहा कि बेटे का ख्याल रखिएगा। अंजान शहर में एक हरिगोविंद जी ही अपने लग रहे थे। उन्होंने भी कहा 'आप निश्चिंत रहिए, अब ये महाशय हमारे साथ हैं।Ó पंद्रह मिनट के बाद ताऊजी भी रवाना हो गए और मैं रह गया तन्हा अपनों से दूर। यहां सब कुछ अजीब लग रहा था। नया देस, नया भेष, और नई बोली...
जारी...

Sunday, April 4, 2010

छुट्टी, मिलना आसान, काटना मुश्किल

काफी समय बाद मुझे लगातार दो दिनों की छुट्टी मिली। इसका दुरूपयोग करते हुए मै गाज़ियाबाद अपने चाचा से मिलने चला गया। दुरूपयोग इसलिए कह रहा हूँ कुन्की इसके बदले मै रूम पर कोई अच्छी सी किताब पढ़ सकता था। लेकिन सामाजिक सरोकारों को निभाते हुए और खुद को अच्छा भतीजा साबित करने के लिए अपने प्रिय चाचा-चाची के पास चला गया। खैर जाने पर अच्छा लगा, लेकिन उसके बदले में बड़ा नुकसान हुआ जो अब महसूस कर रहा हूँ। ३० मार्च को रात में जल्दी काम ख़त्म कर रूम पर चला गया। सुबह छह बजे की ट्रेन थी सो पांच बजे मेरा साथी लोकेश मेरी गुज़ारिश पर मुझे स्टेशन छोड़ने को राजी हो गया। चाचा-चाची से मिलने की ख़ुशी में आँखों से नींद इस कदर गायब हो गई जैसे मै पिछले १२ घंटो से सो ही रहा था। ५.१५ बजे स्टेशन पहुँच गया। गफलत में पहले मैं दिल्ली जाने वाली ट्रेन में बैठ गया। दुसरे मुसाफिरों से पता चला की ट्रेन गाज़ियाबाद नहीं जाएगी, सो फुर्ती दिखाते हुए मै फ़ौरन समालखा स्टेशन पर उतर गया। आधे घंटे इंतज़ार के बाद गाज़ियाबाद जाने वाली ट्रेन आई। उसमे सवार हो तीन घंटे में अपनी मंजिल पहुँच गया। रास्ते भर मै uoonghta रहा। घर पहुँच कर अच्छा लगा। एक घंटे में मेरी सारी बातें ख़तम हो गईं। मसलन सभी का हलचल वगैरह -वगैरहउसके बाद टीवी देख कर टाइम पास करने लगा। दो घंटे देख कर उससे भी जी भर गया। तब समझ मै आया की छुट्टी लेना कितना आसान है और उसे काटना कितना कठिन. यह मेरा फलसफा है.
इस दौरान एक बात समझ आ गई की छुट्टी लेकर घर बैठना और परिवार वालों के साथ गप मरना मेरे बस की बात नहीं है। वो अलग बात है की हर बार घर जाने पर मुझे यह बात समझ आती है और कर्म भूमि में लौटते ही फिर से उसे भूल जाता हूँ। दो दिन गाज़ियाबाद में जाया करने के बाद पानीपत लौट आया। और फिर हर बार की तरह तय किया की अब जरुरी काम पड़ने पर ही छुट्टी लूँगा। एक बात मै एकदम सच कहता हूँ। काम करने और व्यस्त रहने में ही मुझे मज़ा आता है। जम्मू से भी जब मै आठ दस दिनों के लिया जाता था तो घर में बोर हो जाता था। अब पानीपत आ गया हूँ। फिर वाही पुराना नियम शुरू हो गया। सुबह ११-१२ बजे जागना। 4 बजी खाना और फिर ऑफिस। रात दो बजे रूम पर लौटना। खाना बनाना, खाना और भोर में ५ बजे सोना। ब्रेकफास्ट तो अपनी दिनचर्या में ही नहीं है। घर जाता हूँ तो जब मम्मी ब्रेकफास्ट के लिए पूछती हैं तो लगता है मजाक कर रही हैं। अब लगता है की ब्रेकफास्ट हम जैसे उल्लूँ के लिए नहीं बनाया जाता। उल्लूँ इसलिय कहा क्यूंकिअपनी दिनचर्या ही ऐसी है। आम आदमी से बिलकुल अलग।
जम्मू में हम ५ बजे ऑफिस थे और रात में दो बजे घर। सुबह १० बजे जाग जाते थे। वहां हम और भूपेंद्र साथ में थे। हम घर से ऑफिस के आलावा कही नहीं जाते थे। १५ से ५ के बीच घर से बाहर निकलने में नानी याद आने लगती थी। वहां कई सप्ताह हमें रात में सड़कों पर चमचमाती लाइट देखे हुए हो जाते थे। वीकली भी दो तीन महीने महीने में एक बार मिलती थी। कई महीने बाद छुट्टी मिलने पर रात को जरुर घमने जाते थे। तब हम सब कुछ ऐसे देखते थे मनो अभी अभी जेल से छुट कर आये हैं या फिर दूसरी दुनिया से. तब लगता थे की हमारी जिन्दागे नरक हो गई है। अपनी दुनिया ही अलग हो गई थी। सिर्फ अख़बार, अख़बार और अख़बार।
पानीपत में कई बातें खास हुईं। यहाँ भी मुझे बहुत अच्छे लोग मिले। अमित सर, नागा बाबा, लोकेश, विनोद, राजेश aur निवेदिता। सभी बहुत अच्छे। मेरा मानना है की अच्छे लोगों के साथ हमेशा अच्छा ही होता है। अब यहाँ से भी कई लोगों का ट्रान्सफर होने वाला है। डर लग रहा है की सभी का साथ छूट जायेगा।
आज बहुत दिनों के बाद इतनी देर बैठ कर लिखा हूँ। जो दिमाग में आया, लिखता चला गया. कुछ नहीं सोचा। कोशिश होगी की अब लिखता रहूँगा###

Tuesday, March 23, 2010

जिंदगी तस्वीर भी और तकदीर भी

aaj mere patrakaritya carrier ke pure 4 saal ho gaye hain. in char saalon me maini bahut kuch sikha. dher saare anubhav liye. professionaly aur personaly, dono. isme 1 baat saf ho gai ki dunia aap ke mutabik hi apko dikhegi. matlab agar aap khush hain to dunia acche aur agar aap dukhi hain to dunia kharab dikhegi. lihaza hamesha khush rehna chahiye. jammu me aaj hi ke din amar ujala join kiya tha. mata vaishno devi k darshan karne k bad hari govind ji k pas gaya aur vahan se vikram chowk isthit amar ujala office. vahan us samay ravindra srivastava sampadak the. lekin mai pahle pradeep sir se mila. unse pahle mulakat. meri khuskismati the ki pahle unse mila. mere liye sammanniya hain. unse bahut kuch sikha hai. hari govind ji ne sanjeev mishra ji se milavaya. vahan dinesh vishwakarma je se bhi mulakat hui. hum 3 log ek sath rahne lage. suru me bahut kharab lag raha th. lekin bad me sab accha lagne laga. ghar ki bhi yad aate the. 3 sal jammu me rahne k dauran bahut se utar-chadav dekhe. bahut kuch sikha. ab dainik bhaskar me hun. yahan b maza aa raha hai.

kisi ne kya khub kaha hai zindagi tasveer b hai aur taqdeer b. manchahe rango se bane to tasveer, aur unchae rango se bane to taqdeer.

Monday, March 22, 2010

अभिप्रेरित पंक्तियाँ

give me some sun shine,
give me some rays.
give me another chance
to wanna grow up once again.

Monday, March 8, 2010

happy

today i m very happy. I have facilitated by bhaskrite of the month (february). this is the reward for that, which i have worked here. some initiative is very good in bhaskar.

Sunday, February 7, 2010

aa gayi vo subh ghari

sabhi ko apna blog banate dekh apni bhi kuch likhne ki ichha hui. kai dino se is bare me soch raha that, lekin time kam hone ke chlte blog nahi bana pa raha tha. khair, vo subh ghari aa hi gai. aaj edition kaafi pahle nikal gaya, so blog banane auu kuch likhne baith gaya. umeed hai ki aaj se time nikal kar kuch likh sakunga.