Tuesday, December 8, 2015

दुनिया को ग्‍लोबल वॉर्मिंग से निपटने के लिए अपनाने होंगे भूटान के ये तरीके..!

हम मानव अपने साथ हुए बुरे सलूक का बदला ले पाएं या नहीं, प्रकृति अपना बदला ले ही लेती है। नदियों-पहाड़ों को काटकर कॉन्‍क्रिट के जंगल बसाएंगे तो हश्र वही होगा जो बीते 3 सालों में हमने उत्तराखंड, कश्मीर में देखा और अब चेन्नई में देख रहे हैं। कश्मीर और उत्तराखंड में पर्यटन की संभावनाओं का खतरनाक स्तर तक दोहन ऐसी आपदाओं को निमंत्रण देने में सहायक रहा है। बीते बरसों में चेन्नई भी बहुत तेजी से तरक्की की राह पर बढ़ा, लेकिन तरक्की का यह रास्ता जिन पेड़ों-नदियों को काटकर बनाया गया, यह बाढ़ उसी की परिणति है।




हाल ही में पेरिस में हुए जलवायु सम्मेलन में दुनियाभर के राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री एकजुट होकर पर्यावरण के प्रति चिंतित दिखाई दिए। पर हकीकत ये है कि इस पर्यावरण को दूषित करने में इन्हीं देशों की भागीदारी सर्वाधिक है। उस सम्मेलन में हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने भी पूरे विश्व को दो खतरों से आगाह किया था, जो हर दिन तेजी से बढ़ रहा है। पहला आतंकवाद और दूसरा ग्लोबल वार्मिंग। बदकिस्मती से उनके चेताने के चंद घंटों बाद ही उसी फ्रांस की धरती पर आतंकवादी हमला हुआ। और दूसरे खतरे से हम पिछले 6 दिन से चेन्नई में जूझ रहे हैं।

भूटान से सीखना होगा दुनिया को ये सबक : दुनिया भर में अंधाधुंध औद्योगीकरण के कारण जो कार्बन उत्सर्जित हो रहा है, वह ग्लोबल वॉर्मिंग का बड़ा कारण रहा है। इन बड़े देशों को अपने से हर मायने में छोटे देश भूटान से सीखना चाहिए। हिन्दुस्तान का यह छोटा सा पड़ोसी मुल्क जितना भी कार्बन उत्सर्जित करता है, उसके जंगल उससे 3 गुना ज्यादा तक कार्बन डाईआक्साइड खुद में समाहित कर लेते हैं। कार्बन उत्सर्जन का अध्ययन कर रही ब्रिटेन की संस्था इकोनॉमिक एंड क्लाइमेट इंटेलिजेंस यूनिट (ECIU) की रिपोर्ट भूटान की इसी खूबी को बताती है। इसी कारण भूटान को कार्बन निगेटिव देश भी कहते हैं। तकनीक के मामले में यह देश चाहे जितना पिछड़ा हो, पर यहां जंगलों में दिनबदिन विस्तार ही हो रहा है।

वहीं इसके उलट अपने देश में रोजाना जंगलों की सीमा संकुचित होती जा रही है। हाल ही में भूटान ने एक घंटे में 50000 पौधों को रोपित कर विश्व रिकॉर्ड भी बनाया, जिसकी पूरे विश्व में प्रशंसा हुई थी। देश में मौसम अब इतना चौंकाता है कि मौसम चक्र बीती बातें सी लगती हैं। मई-जून में ही बारिश होने लगती है, तो दिसंबर में भी ठंड असरकारी नहीं दिखती। अक्टूबर-नवंबर तक घरों में अब एयरकंडिशनर चलाए जाते हैं।

बदलता मौसम कितना खतरनाक है, यह वर्तमान में इसी से समझा जा सकता है कि उत्तरी कर्नाटक सूखा है तो दक्षिणी कर्नाटक में भीषण बारिश हो रही। वहीं चेन्नई के हालात तो जगजाहिर हैं। 1950 के बाद से लगातार मॉनसूनी बारिश की दर में कमी आ रही है। अब किसी खास इलाके में समय विशेष के अंतराल में इतनी बारिश हो रही कि तबाही ही हो रही।





और बढ़ा दुनिया पर खतरा :  मौसम वैज्ञानिकों के मुताबिक वैश्विक तापमान में यदि 2 डिग्री और इजाफा होता है तो मौसम चक्र और भी बेइमान हो जाएगा। यानी मॉनसून का कोई समय नहीं होगा। वैश्विक तापमान जितना बढ़ेगा, खतरा उससे कई गुना अधिक होता जाएगा। देश में मौसम विभाग की चेतावनी कितनी सटीक होती है,इसकी जानकारी सभी को है। उनके भरोसे रहकर इस संकट से नहीं निपटा जा सकता। अफसोस है कि प्राकृतिक आपदाओं की समय रहते चेतावनी हमें अभी भी नहीं मिलती।

उत्‍तराखंड त्रासदी थी भयावह : ढाई बरस पीछे का रुख करते हैं। उत्तराखंड की विभीषिका अभी भी जेहन में ताजा है। हिमालय के ग्लेशियरों का पिघलना पिछले कई दशक से जारी था। हमने ध्यान नहीं दिया। पिघलते ग्लेशियरों से ऊपरी इलाकों में कई जल कुंड बन गए। जब ग्लेशियर के पानी से जल कुंड भी लबालब हो गए तो ये फट पड़े। और परिणति में प्रकृति की ओर से दिया गया वो दर्द मिला जो कभी नहीं भुलाया जा सकता। हजारों लाशें पानी में बह गईं।

धरती अंदर से तप रही तो बाहर पहाड़ दरक रहे। ग्लेशियर गल रहे। इस समय अधिकांश हिमालयी ग्लेशियर क्षेत्रों में नमी को बरकरार रखने वाला मानसून लगातार कमजोर होता जा रहा है। इससे ग्लेशियरों को तेजी से पिघलना जारी है। लगातार ग्लेशियरों के गर्म होने और पिघलने के कारण उत्तरी भारत की अधिकांश नदियों के अस्तित्व पर भी संकट मंडरा रहा है। इनमें सिंधु और ब्रह्मपुत्र नदी सबसे ज्यादा डेंजर जोन के करीब हैं।



भारत पर है नदियों का खतरा : नदियों का क्रोध हम हिंदुस्तानी हर साल देखते ही हैं। बिहार में हर साल नदियां अपना रौद्र रूप दिखाती हैं। कोसी और घाघरा जैसी नदियां तो मैदानी इलाकों की हैं, तो बचने का मौका मिल भी जाता है। पहाड़ी नदियों का वेग तो बचाव का भी मौका नहीं देती। इसकी बानगी हमने पिछले साल ही कश्मीर में देखी, जब झेलम ने आधे से ज्यादा कश्मीर में तबाही मचाई थी। बर्फ से लकदक रहने वाली सड़कें पानी में गुम हो गईं थीं। ग्लेशियर पिघलेंगे तो जाहिर है समुद्र का जलस्तर बढ़ेगा। यह और भी बड़ा खतरा है।

भविष्य में समुद्र तटों पर बसे शहरों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा। इसकी सर्वाधिक मार उन्हीं पर पड़ेगी। मुंबई और चेन्नई जैसे शहर सबसे पहले इसकी जद में आएंगे। कहते हैं दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है। पर इतनी विनाशलीला देखने के बाद भी भारत ही नहीं, विश्व के सभी देश अभी भी पुराने ढर्रे पर ही चल रहे हैं।

ग्लोबल वार्मिंग के खतरे से वाकिफ होने के बाद भी प्रकृति पर चोट करने वाले काम कर रहे हैं। और फिर साल में दो-तीन बार किसी एक देश में पर्यावरण बचाने को सम्मेलन में सिर्फ चिंता जताते हैं। हमें यह याद रखना चाहिए कि यह धरती जितनी उदार है, उतनी ही कठोर भी। इसके हित का ध्यान रखते हुए काम करेंगे तो यह भी हमारा ख्याल रखेगी, नहीं तो नतीजा सबके सामने ही है।

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