मुद्दा ये नहीं कि भाजपा की बिहार में बुरी गति हुई है। मुद्दा ये भी नहीं
कि इस हार का ठीकरा किसी एक के सिर नहीं फोड़ा गया। मुद्दा ये है कि पार्टी
में हाशिए पर पड़े वयोवृद्ध नेता अरसे बाद जब साहस जुटाकर कुछ कहते हैं तो
उन्हें ही पार्टी की परंपरा का ‘ज्ञान’ दिया जाता है। कभी पार्टी के
नीति-नियंता रहे नेताओं को बताया जाता है कि पार्टी में क्या रवायत रही है
या यों कहें कि उन्हें ‘आईना’ दिखाया जाता है। ये वही नेता हैं जिन्होंने
इस पार्टी को अपना पूरा जीवन देकर इसे सिंचित किया, अपनी बौद्धिक कुशलता,
सामाजिक सक्रियता से इसे पुष्पित-पल्लवित किया।
यह देखकर सोचता हूं कि अच्छा हुआ जो अटल जी ‘मौन’ ही हो गए हैं। वरना पार्टी के भीष्म पितामह लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी की तरह वे भी थोड़े बहुत सक्रिय रहते तो उन्हें भी दो टूक पार्टी की परंपरा बता दी जाती। भारतीय जनता पार्टी के स्तंभ रहे नेताओं के साथ ऐसा बर्ताव देखकर लगता है कि महत्वाकांक्षा मनुष्य को कितना पतित कर सकती है। कभी ये नारा बहुत उछला था- भारत मां की तीन धरोहर, अटल आडवाणी और मुरली मनोहर। इन धरोहरों की पार्टी को आज फिक्र क्यों नहीं है। आज ये ‘लाइट हाउस’ पार्टी में क्यों अप्रासंगिक हो गए हैं। अटल जी तो सालों पहले ही राजनीति से संन्यास ले चुके हैं। आडवाणी और जोशी को विवश किया जा रहा कि वे भी चुप ही हो जाएं, अन्यथा उन्हें भी रास्ता दिखा दिया जाएगा। हालांकि राजनीतिक वनवास पर तो ये सभी नेता हैं ही।
हालांकि ये अच्छा है कि पार्टी की कमान नए नेताओं को दी जाए। उन्हें वरीयता दी जाए। बड़े अवसर दिए जाएं, पर इसका ये तो मतलब कतई नहीं होना चाहिए कि पुराने नेताओं की सरेआम तौहीन की जाए। बेशक आपने उन्हें पार्टी का मार्गदर्शक बना दिया है। पर यही मार्गदर्शक मंडल जब महसूस करे कि पार्टी गलत राह पर जा रही है, तब कोई राह दिखाए तो उल्टा उन्हें ही रवायत की हिदायत दी जाए। ये तो कहीं से भी मुनासिब नहीं। आडवाणी को 2013 में गोवा की कार्यकारिणी में जलील किया गया।
2014 में जोशी को इलाहाबाद-लखनऊ चाहते हुए भी कानपुर का टिकट थमा दिया गया। यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी को तो पार्टी अब अपना मानने से भी कतराती नजर आती है। शत्रुघ्न सिन्हा का बिहार में क्या हाल रहा, ये तो हम सभी देख ही रहे हैं। गलत को गलत कहने पर उन्हें भी ‘सूली’ पर चढ़ाने की तैयारी कर ली गई है। गृह राज्य होने के बाद भी यशवंत और शत्रुघ्न को बिहार चुनाव में कोई जिम्मेदारी तो दूर, राय तक नहीं ली गई। यह एक संकेत है।
पार्टी में आडवाणी जोशी की क्या हालत हो गई है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि अपनी बात कहने के लिए इन्हें साझा बयान देना पड़ रहा है। यानि इन्हें पता है कि अकेले कहने पर किसी के कान में जूं तक नहीं रेंगेगी। अपनी बात कहने के लिए आडवाणी, जोशी, शौरी और यशवंत को एक साथ ‘चिल्लाना’ पड़ता है ताकि उनकी बात भी सुनी जाए। उन्हें साफ-साफ कहना पड़ता है कि हार की जिम्मेदारी तय हो। हारने वाले खुद हार की समीक्षा नहीं कर सकते। क्या गलत कहा। पर अफसोस यह भी बेकार हो गया। उनकी बात को खारिज करते हुए पार्टी की परंपरा सिखाई गई। कहा गया कि पार्टी में हार-जीत की सामूहिक जिम्मेदारी होती है। हार-जीत तो वाकई होती रहती है, पर बुजुर्गियत का हवाला देकर उनके संदेश को ही अनसुना कर देना जायज नहीं है।
दरअसल जो पार्टी वंशवाद को तोड़ते हुए अपने अनुशासन और एक-दूसरे के मान-सम्मान के लिए जानी जाती हो, सबको कहने और सबको सुनने के लिए जानी जाती हो, वहां पार्टी स्तंभों की ऐसी नजरंदाजी को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। ठीक है कि पुराने का स्थान नया लेता है। पर जिन्हें आपने कभी धरोहर कहा, उसके साथ ही इतनी बेरुखी ठीक नहीं। नए को मौका दीजिए, भरपूर दीजिए। पर पुराने खासतौर पर आडवाणी, जोशी के साथ तो ऐसा सुलूक मत करिए।
(12 नवंबर को लिखी पोस्ट)
यह देखकर सोचता हूं कि अच्छा हुआ जो अटल जी ‘मौन’ ही हो गए हैं। वरना पार्टी के भीष्म पितामह लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी की तरह वे भी थोड़े बहुत सक्रिय रहते तो उन्हें भी दो टूक पार्टी की परंपरा बता दी जाती। भारतीय जनता पार्टी के स्तंभ रहे नेताओं के साथ ऐसा बर्ताव देखकर लगता है कि महत्वाकांक्षा मनुष्य को कितना पतित कर सकती है। कभी ये नारा बहुत उछला था- भारत मां की तीन धरोहर, अटल आडवाणी और मुरली मनोहर। इन धरोहरों की पार्टी को आज फिक्र क्यों नहीं है। आज ये ‘लाइट हाउस’ पार्टी में क्यों अप्रासंगिक हो गए हैं। अटल जी तो सालों पहले ही राजनीति से संन्यास ले चुके हैं। आडवाणी और जोशी को विवश किया जा रहा कि वे भी चुप ही हो जाएं, अन्यथा उन्हें भी रास्ता दिखा दिया जाएगा। हालांकि राजनीतिक वनवास पर तो ये सभी नेता हैं ही।
हालांकि ये अच्छा है कि पार्टी की कमान नए नेताओं को दी जाए। उन्हें वरीयता दी जाए। बड़े अवसर दिए जाएं, पर इसका ये तो मतलब कतई नहीं होना चाहिए कि पुराने नेताओं की सरेआम तौहीन की जाए। बेशक आपने उन्हें पार्टी का मार्गदर्शक बना दिया है। पर यही मार्गदर्शक मंडल जब महसूस करे कि पार्टी गलत राह पर जा रही है, तब कोई राह दिखाए तो उल्टा उन्हें ही रवायत की हिदायत दी जाए। ये तो कहीं से भी मुनासिब नहीं। आडवाणी को 2013 में गोवा की कार्यकारिणी में जलील किया गया।
2014 में जोशी को इलाहाबाद-लखनऊ चाहते हुए भी कानपुर का टिकट थमा दिया गया। यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी को तो पार्टी अब अपना मानने से भी कतराती नजर आती है। शत्रुघ्न सिन्हा का बिहार में क्या हाल रहा, ये तो हम सभी देख ही रहे हैं। गलत को गलत कहने पर उन्हें भी ‘सूली’ पर चढ़ाने की तैयारी कर ली गई है। गृह राज्य होने के बाद भी यशवंत और शत्रुघ्न को बिहार चुनाव में कोई जिम्मेदारी तो दूर, राय तक नहीं ली गई। यह एक संकेत है।
पार्टी में आडवाणी जोशी की क्या हालत हो गई है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि अपनी बात कहने के लिए इन्हें साझा बयान देना पड़ रहा है। यानि इन्हें पता है कि अकेले कहने पर किसी के कान में जूं तक नहीं रेंगेगी। अपनी बात कहने के लिए आडवाणी, जोशी, शौरी और यशवंत को एक साथ ‘चिल्लाना’ पड़ता है ताकि उनकी बात भी सुनी जाए। उन्हें साफ-साफ कहना पड़ता है कि हार की जिम्मेदारी तय हो। हारने वाले खुद हार की समीक्षा नहीं कर सकते। क्या गलत कहा। पर अफसोस यह भी बेकार हो गया। उनकी बात को खारिज करते हुए पार्टी की परंपरा सिखाई गई। कहा गया कि पार्टी में हार-जीत की सामूहिक जिम्मेदारी होती है। हार-जीत तो वाकई होती रहती है, पर बुजुर्गियत का हवाला देकर उनके संदेश को ही अनसुना कर देना जायज नहीं है।
दरअसल जो पार्टी वंशवाद को तोड़ते हुए अपने अनुशासन और एक-दूसरे के मान-सम्मान के लिए जानी जाती हो, सबको कहने और सबको सुनने के लिए जानी जाती हो, वहां पार्टी स्तंभों की ऐसी नजरंदाजी को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। ठीक है कि पुराने का स्थान नया लेता है। पर जिन्हें आपने कभी धरोहर कहा, उसके साथ ही इतनी बेरुखी ठीक नहीं। नए को मौका दीजिए, भरपूर दीजिए। पर पुराने खासतौर पर आडवाणी, जोशी के साथ तो ऐसा सुलूक मत करिए।
(12 नवंबर को लिखी पोस्ट)
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