


हमें पहलगाम कैंप में रात को ही बता दिया गया था कि सुबह सात बजे चंदनवाड़ी पहला दल रवाना होगा। लिहाजा, आप सभी साढ़े छह बजे ग्राउंड में आ जाएं। हम सुबह पांच बजे उठे। यह सोचा कि सबसे पहले हम ही तैयार होकर पहुंचेंगे। लेकिन बाहर आए तो देखा हमसे भी चौकन्ने लोग हैं। सैकड़ों लोग कतार में लगे हुए थे। हम भी लग लिए। एक-एक बंदे का नाम नोट कर बाहर भेजा जा रहा था। बाहर आए तो चंदनवाड़ी के लिए बसें लगी हुईं थी। हम तेजी से भागे और बस में सवार हो गए। यहां भी हमसे पहले कई लोगों ने बाजी मार ली थी। शुक्र है सीट मिल गई थी। इस समय तक हम समुद्र तल से ९५०० फीट की ऊंचाई पर थे। अब हम और ऊंचाई की ओर बढ़ रहे थे। पहलगाम बेस कैंप से चंदनवाड़ी के बीच १६ किलोमीटर की दूरी हमने बस से तय की। वाहन का साथ यहीं तक था। अब हमारी पद यात्रा शुरू हुई। बाबा बर्फानी की ओर जैसे-जैसे हम बढ़ रहे थे, नजारा और मनोहारी होता जा रहा था। हर बार लगता कि इससे सुंदर नजारा हो ही नहीं सकता लेकिन कुछ लम्हों बाद हम गलत साबित होते। प्रकृति का एक और नायाब चेहरा हमें निहारता और हम उसे, अपलक। चन्दनवाड़ी में फिर कतार लगानी पड़ी। यहां तक जम्मू से सभी भक्तों को एक साथ रखा गया था। इसके बाद सभी को अलग अलग छोड़ दिया गया था। सभी अपने-अपने ग्रुृप के साथ स्वच्छंद थे। बाबा के नारे लगाते हुए आगे बढ़े जा रहे थे। कुछ दूर तक तो रास्ता सीधा-साधा था, लेकिन उसके बाद एकदम से पथरीला और ऊंचाई की ओर जाता रास्ता हमारा इंतजार करता दिखा। देखकर लगा कि यह रास्ता कैसे पार होगा। रास्ता भी वाकई देखने में बेहद पथरीला था। ऐसा रास्ता जो लाठी का सहारा न लें तो आप लुढ़कते हुए प्रारब्ध में पहुंच जाएंगे। शिवशंकर का नाम लिया और शुरू कर दी चढ़ाई। ग्रुप में चूंकि मैं सबसे यंग, पतला दुबला और शायद फुर्तीला था, इसलिए सरपट भागे जा रहा था। आगे जाकर अपने साथियों को प्रोत्साहित कर जल्दी पांव बढ़ाने को कहता। चंदनवाड़ी से तीन किलोमीटर दूर पिस्सूटॉप हमारा अगला पड़ाव था। शुरुआत में जो उत्साह था वो इस एडवेंचर भरे रास्ते को देख कुछ समय तो कायम रहा, लेकिन कुछ घंटे बीतने के बाद थकान हावी होती गई। हम निरंतर ऊंचाई की ओर बढ़ रहे थे। शुरू के तीन किलोमीटर में ही हमारी हालत खस्ता हो गई। ऐसा लग रहा था मानों कई दिन से चल रहे हों। लंबी ट्रैकिंग के चलते हम लोगों ने बेहद हल्का-फुल्का नाश्ता किया था। कुछ घंटों की पदयात्रा कर हम पहुंच गए अपने पहले पड़ाव पिस्सूटॉप पर। यहां दूर-दूर तक इतना ऊंचा पहाड़ नहीं दिख रहा था। ११००० फीट की ऊंचाई पर पहुंचकर तीन दिशाओं की ओर देखा तो लगा कि यही सबसे ऊंची जगह है। लेकिन मुड़कर चौथी दिशा की ओर देखा तो ऊंचा पर्वत अकड़ा हुआ हमें डरा रहा था। हमारी अगली मंजिल जोजीबल का रास्ता इसी पहाड़ के पीछे से था। पहाड़ को काटकर बनाई गई पगडंडी नुमा रास्ते से होते हुए हम बढऩे लगे। यहां रास्ता इतना तंग था कि एक साथ तीन लोगों का भी चलना दुश्वार था। एक कदम भी लडख़ड़ाने पर पता नहीं कितने हजार फीट नीचे दफन हो सकते थे। सावधानी बरतते हुए हम जोजीबल पहुंचे। इसके बाद अगली मंजिल नागकोटि थी। दोपहर तक हम यहां पहुंच चुके थे। सांझ होते-होते हम ११७०० फीट ऊपर शेषनाग पहुंचे। पिस्सूटॉप से यहां तक का सफर ११ किलोमीटर था। यहां आने तक हमारे शरीर का कचूमर निकल चुका था। यहां भी भोले का भंडारा लगा था। हम लोगों ने तय किया कि रात यहीं बिताई जाएगी। शेषनाग में तीन ओर से पहाड़ों से घिरा एक तालाबनुमा कुंड दिखा। पहाड़ों पर पड़ी बर्फ पिघलकर उसका पानी इसी कुंड में समा रहा था। वह दृश्य विहंगम था। किवदंती है कि नागपंचमी के दिन इस कुंड में भगवान शेषनाग दर्शन देते हैं। कुंड का पानी बेहद स्वच्छ और निर्मल लग रहा था। हमने उसी दिन उस कुंड में भगवान शेषनाग के दर्शन करने की चेष्टा की। मन ही मन उनका प्रतिबिंब बनाकर उसे तालाब में देखने असफल कोशिश की। खुद पर खीझ आई कि नागपंचमी के दिन यहां क्यों नहीं आए। हाथ जोड़कर मैं आगे बढ़ गया।
शेषनाग में अमरनाथ बोर्ड की ओर से रुकने का प्रबंध किया गया था। यहां दो कलाकार शंकर और पार्वती का स्वांग भी कर रहे थे। हम लोग वहीं धूनी रमाए बैठे रहे। कुछ ही देर में बारिश होने लगी। यहां मौसम पल-पल इस कदर रंग बदल रहा था जैसे गिरगिट। हमें तनिक भी भान न था कि यहीं बारिश हो जाएगी। हम टेंट की ओर भागे। बारिश के बाद ठंड भी यकायक बढ़ गई। कंपकंपी छूटने लगी। थकान इतनी जबरजस्त थी कि मैं बिना कुछ खाए-पिए ही सो गया। साथियों ने जगाने की कोशिश की, लेकिन मैं कहां जागने वाला था। मेरी कुंभकरणी नींद भोर में ही टूटी।
दूसरा दिन चलते-चलते ही बीत गया। जारी...