Tuesday, December 8, 2015

दुनिया को ग्‍लोबल वॉर्मिंग से निपटने के लिए अपनाने होंगे भूटान के ये तरीके..!

हम मानव अपने साथ हुए बुरे सलूक का बदला ले पाएं या नहीं, प्रकृति अपना बदला ले ही लेती है। नदियों-पहाड़ों को काटकर कॉन्‍क्रिट के जंगल बसाएंगे तो हश्र वही होगा जो बीते 3 सालों में हमने उत्तराखंड, कश्मीर में देखा और अब चेन्नई में देख रहे हैं। कश्मीर और उत्तराखंड में पर्यटन की संभावनाओं का खतरनाक स्तर तक दोहन ऐसी आपदाओं को निमंत्रण देने में सहायक रहा है। बीते बरसों में चेन्नई भी बहुत तेजी से तरक्की की राह पर बढ़ा, लेकिन तरक्की का यह रास्ता जिन पेड़ों-नदियों को काटकर बनाया गया, यह बाढ़ उसी की परिणति है।




हाल ही में पेरिस में हुए जलवायु सम्मेलन में दुनियाभर के राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री एकजुट होकर पर्यावरण के प्रति चिंतित दिखाई दिए। पर हकीकत ये है कि इस पर्यावरण को दूषित करने में इन्हीं देशों की भागीदारी सर्वाधिक है। उस सम्मेलन में हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने भी पूरे विश्व को दो खतरों से आगाह किया था, जो हर दिन तेजी से बढ़ रहा है। पहला आतंकवाद और दूसरा ग्लोबल वार्मिंग। बदकिस्मती से उनके चेताने के चंद घंटों बाद ही उसी फ्रांस की धरती पर आतंकवादी हमला हुआ। और दूसरे खतरे से हम पिछले 6 दिन से चेन्नई में जूझ रहे हैं।

भूटान से सीखना होगा दुनिया को ये सबक : दुनिया भर में अंधाधुंध औद्योगीकरण के कारण जो कार्बन उत्सर्जित हो रहा है, वह ग्लोबल वॉर्मिंग का बड़ा कारण रहा है। इन बड़े देशों को अपने से हर मायने में छोटे देश भूटान से सीखना चाहिए। हिन्दुस्तान का यह छोटा सा पड़ोसी मुल्क जितना भी कार्बन उत्सर्जित करता है, उसके जंगल उससे 3 गुना ज्यादा तक कार्बन डाईआक्साइड खुद में समाहित कर लेते हैं। कार्बन उत्सर्जन का अध्ययन कर रही ब्रिटेन की संस्था इकोनॉमिक एंड क्लाइमेट इंटेलिजेंस यूनिट (ECIU) की रिपोर्ट भूटान की इसी खूबी को बताती है। इसी कारण भूटान को कार्बन निगेटिव देश भी कहते हैं। तकनीक के मामले में यह देश चाहे जितना पिछड़ा हो, पर यहां जंगलों में दिनबदिन विस्तार ही हो रहा है।

वहीं इसके उलट अपने देश में रोजाना जंगलों की सीमा संकुचित होती जा रही है। हाल ही में भूटान ने एक घंटे में 50000 पौधों को रोपित कर विश्व रिकॉर्ड भी बनाया, जिसकी पूरे विश्व में प्रशंसा हुई थी। देश में मौसम अब इतना चौंकाता है कि मौसम चक्र बीती बातें सी लगती हैं। मई-जून में ही बारिश होने लगती है, तो दिसंबर में भी ठंड असरकारी नहीं दिखती। अक्टूबर-नवंबर तक घरों में अब एयरकंडिशनर चलाए जाते हैं।

बदलता मौसम कितना खतरनाक है, यह वर्तमान में इसी से समझा जा सकता है कि उत्तरी कर्नाटक सूखा है तो दक्षिणी कर्नाटक में भीषण बारिश हो रही। वहीं चेन्नई के हालात तो जगजाहिर हैं। 1950 के बाद से लगातार मॉनसूनी बारिश की दर में कमी आ रही है। अब किसी खास इलाके में समय विशेष के अंतराल में इतनी बारिश हो रही कि तबाही ही हो रही।





और बढ़ा दुनिया पर खतरा :  मौसम वैज्ञानिकों के मुताबिक वैश्विक तापमान में यदि 2 डिग्री और इजाफा होता है तो मौसम चक्र और भी बेइमान हो जाएगा। यानी मॉनसून का कोई समय नहीं होगा। वैश्विक तापमान जितना बढ़ेगा, खतरा उससे कई गुना अधिक होता जाएगा। देश में मौसम विभाग की चेतावनी कितनी सटीक होती है,इसकी जानकारी सभी को है। उनके भरोसे रहकर इस संकट से नहीं निपटा जा सकता। अफसोस है कि प्राकृतिक आपदाओं की समय रहते चेतावनी हमें अभी भी नहीं मिलती।

उत्‍तराखंड त्रासदी थी भयावह : ढाई बरस पीछे का रुख करते हैं। उत्तराखंड की विभीषिका अभी भी जेहन में ताजा है। हिमालय के ग्लेशियरों का पिघलना पिछले कई दशक से जारी था। हमने ध्यान नहीं दिया। पिघलते ग्लेशियरों से ऊपरी इलाकों में कई जल कुंड बन गए। जब ग्लेशियर के पानी से जल कुंड भी लबालब हो गए तो ये फट पड़े। और परिणति में प्रकृति की ओर से दिया गया वो दर्द मिला जो कभी नहीं भुलाया जा सकता। हजारों लाशें पानी में बह गईं।

धरती अंदर से तप रही तो बाहर पहाड़ दरक रहे। ग्लेशियर गल रहे। इस समय अधिकांश हिमालयी ग्लेशियर क्षेत्रों में नमी को बरकरार रखने वाला मानसून लगातार कमजोर होता जा रहा है। इससे ग्लेशियरों को तेजी से पिघलना जारी है। लगातार ग्लेशियरों के गर्म होने और पिघलने के कारण उत्तरी भारत की अधिकांश नदियों के अस्तित्व पर भी संकट मंडरा रहा है। इनमें सिंधु और ब्रह्मपुत्र नदी सबसे ज्यादा डेंजर जोन के करीब हैं।



भारत पर है नदियों का खतरा : नदियों का क्रोध हम हिंदुस्तानी हर साल देखते ही हैं। बिहार में हर साल नदियां अपना रौद्र रूप दिखाती हैं। कोसी और घाघरा जैसी नदियां तो मैदानी इलाकों की हैं, तो बचने का मौका मिल भी जाता है। पहाड़ी नदियों का वेग तो बचाव का भी मौका नहीं देती। इसकी बानगी हमने पिछले साल ही कश्मीर में देखी, जब झेलम ने आधे से ज्यादा कश्मीर में तबाही मचाई थी। बर्फ से लकदक रहने वाली सड़कें पानी में गुम हो गईं थीं। ग्लेशियर पिघलेंगे तो जाहिर है समुद्र का जलस्तर बढ़ेगा। यह और भी बड़ा खतरा है।

भविष्य में समुद्र तटों पर बसे शहरों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा। इसकी सर्वाधिक मार उन्हीं पर पड़ेगी। मुंबई और चेन्नई जैसे शहर सबसे पहले इसकी जद में आएंगे। कहते हैं दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है। पर इतनी विनाशलीला देखने के बाद भी भारत ही नहीं, विश्व के सभी देश अभी भी पुराने ढर्रे पर ही चल रहे हैं।

ग्लोबल वार्मिंग के खतरे से वाकिफ होने के बाद भी प्रकृति पर चोट करने वाले काम कर रहे हैं। और फिर साल में दो-तीन बार किसी एक देश में पर्यावरण बचाने को सम्मेलन में सिर्फ चिंता जताते हैं। हमें यह याद रखना चाहिए कि यह धरती जितनी उदार है, उतनी ही कठोर भी। इसके हित का ध्यान रखते हुए काम करेंगे तो यह भी हमारा ख्याल रखेगी, नहीं तो नतीजा सबके सामने ही है।

Monday, December 7, 2015

अटल जी, अच्छा ही है कि आप ‘मौन’ हैं...

मुद्दा ये नहीं कि भाजपा की बिहार में बुरी गति हुई है। मुद्दा ये भी नहीं कि इस हार का ठीकरा किसी एक के सिर नहीं फोड़ा गया। मुद्दा ये है कि पार्टी में हाशिए पर पड़े वयोवृद्ध नेता अरसे बाद जब साहस जुटाकर कुछ कहते हैं तो उन्हें ही पार्टी की परंपरा का ‘ज्ञान’ दिया जाता है। कभी पार्टी के नीति-नियंता रहे नेताओं को बताया जाता है कि पार्टी में क्या रवायत रही है या यों कहें कि उन्हें ‘आईना’ दिखाया जाता है। ये वही नेता हैं जिन्होंने इस पार्टी को अपना पूरा जीवन देकर इसे सिंचित किया, अपनी बौद्धिक कुशलता, सामाजिक सक्रियता से इसे पुष्पित-पल्लवित किया।


यह देखकर सोचता हूं कि अच्छा हुआ जो अटल जी ‘मौन’ ही हो गए हैं। वरना पार्टी के भीष्म पितामह लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी की तरह वे भी थोड़े बहुत सक्रिय रहते तो उन्हें भी दो टूक पार्टी की परंपरा बता दी जाती। भारतीय जनता पार्टी के स्तंभ रहे नेताओं के साथ ऐसा बर्ताव देखकर लगता है कि महत्वाकांक्षा मनुष्य को कितना पतित कर सकती है। कभी ये नारा बहुत उछला था- भारत मां की तीन धरोहर, अटल आडवाणी और मुरली मनोहर। इन धरोहरों की पार्टी को आज फिक्र क्यों नहीं है। आज ये ‘लाइट हाउस’ पार्टी में क्यों अप्रासंगिक हो गए हैं। अटल जी तो सालों पहले ही राजनीति से संन्यास ले चुके हैं। आडवाणी और जोशी को विवश किया जा रहा कि वे भी चुप ही हो जाएं, अन्यथा उन्हें भी रास्ता दिखा दिया जाएगा। हालांकि राजनीतिक वनवास पर तो ये सभी नेता हैं ही। 



हालांकि ये अच्छा है कि पार्टी की कमान नए नेताओं को दी जाए। उन्हें वरीयता दी जाए। बड़े अवसर दिए जाएं, पर इसका ये तो मतलब कतई नहीं होना चाहिए कि पुराने नेताओं की सरेआम तौहीन की जाए। बेशक आपने उन्हें पार्टी का मार्गदर्शक बना दिया है। पर यही मार्गदर्शक मंडल जब महसूस करे कि पार्टी गलत राह पर जा रही है, तब कोई राह दिखाए तो उल्टा उन्हें ही रवायत की हिदायत दी जाए। ये तो कहीं से भी मुनासिब नहीं। आडवाणी को 2013 में गोवा की कार्यकारिणी में जलील किया गया।


2014 में जोशी को इलाहाबाद-लखनऊ चाहते हुए भी कानपुर का टिकट थमा दिया गया। यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी को तो पार्टी अब अपना मानने से भी कतराती नजर आती है। शत्रुघ्न सिन्हा का बिहार में क्या हाल रहा, ये तो हम सभी देख ही रहे हैं। गलत को गलत कहने पर उन्हें भी ‘सूली’ पर चढ़ाने की तैयारी कर ली गई है। गृह राज्य होने के बाद भी यशवंत और शत्रुघ्न को बिहार चुनाव में कोई जिम्मेदारी तो दूर, राय तक नहीं ली गई। यह एक संकेत है। 


पार्टी में आडवाणी जोशी की क्या हालत हो गई है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि अपनी बात कहने के लिए इन्हें साझा बयान देना पड़ रहा है। यानि इन्हें पता है कि अकेले कहने पर किसी के कान में जूं तक नहीं रेंगेगी। अपनी बात कहने के लिए आडवाणी, जोशी, शौरी और यशवंत को एक साथ ‘चिल्लाना’ पड़ता है ताकि उनकी बात भी सुनी जाए। उन्हें साफ-साफ कहना पड़ता है कि हार की जिम्मेदारी तय हो। हारने वाले खुद हार की समीक्षा नहीं कर सकते। क्या गलत कहा। पर अफसोस यह भी बेकार हो गया। उनकी बात को खारिज करते हुए पार्टी की परंपरा सिखाई गई। कहा गया कि पार्टी में हार-जीत की सामूहिक जिम्मेदारी होती है। हार-जीत तो वाकई होती रहती है, पर बुजुर्गियत का हवाला देकर उनके संदेश को ही अनसुना कर देना जायज नहीं है। 


दरअसल जो पार्टी वंशवाद को तोड़ते हुए अपने अनुशासन और एक-दूसरे के मान-सम्मान के लिए जानी जाती हो, सबको कहने और सबको सुनने के लिए जानी जाती हो, वहां पार्टी स्तंभों की ऐसी नजरंदाजी को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। ठीक है कि पुराने का स्थान नया लेता है। पर जिन्हें आपने कभी धरोहर कहा, उसके साथ ही इतनी बेरुखी ठीक नहीं। नए को मौका दीजिए, भरपूर दीजिए। पर पुराने खासतौर पर आडवाणी, जोशी के साथ तो ऐसा सुलूक मत करिए।

(12 नवंबर को लिखी पोस्ट)

Wednesday, July 29, 2015

स्वीकारोक्ति


वैसे जानता तो मैं उसे काफी पहले से था, लेकिन शुरू में वो मुझे बिलकुल भी अच्छी नहीं लगती थी। बचपन में हम एक-दूसरे को कनखियों से ही देखते थे। पर बीते 10 सालों के दौरान उससे एक अटूट सा रिश्ता बन गया। हमारी पहली मुलाकात साल 2006 में हुई। हालांकि वो मुलाकात एक मजबूरी में ही हुई थी।

घर से 1300 किलोमीटर दूर जम्मू जाने पर बहुत बुरा लगा। अचानक जैसे सब कुछ छूट गया, पर उसकी मौजूदगी ने कुछ हिम्मत बढ़ाई थी। जम्मू में ही मैंने उसे और करीब से जाना। जीवन के अकेलेपन को काफी हद तक उसने भरा। उसकी खासियत और हर बुरे वक्त में साथ निभाने की अदा का मैं भी कायल हो गया। शुरू में जितना उससे चिढ़ता था, अब उस पर उतना ही फिदा हो गया। धीरे-धीरे कई शहर बदल दिए। जम्मू, औरंगाबाद, मुंबई, पानीपत, गोरखपुर और अब आगरा। शहर बदले, दोस्त बदले पर वो न बदली।

बीच में कुछ दिनों के लिए मैंने उसका साथ छोड़ दिया, पर उसकी मोहब्बत कम न हुई। दोबारा वो याद आई तो फिर उसी शिद्दत से मिली। हमेशा की तरह मेरे लिए फिक्रमंद। फिर वही सुकून मिला जो पहली, दूसरी या तीसरी मुलाकात में मिला करता था। कई बार बुरे वक्त में उसने जिस तरीके से मेरा साथ दिया, उसने दिल जीत लिया। काम के तनाव और थकान से हारा हुआ सा लगता था, पर उसके सामने आते ही नई ऊर्जा आ जाती थी। दो मिनट की मुलाकात ही तरोताजा कर देती थी। समय बीतने के साथ हम दोनों की नजदीकियों की खबर दोस्तों के बाद घरवालों को भी हो गई। दोस्तों ने नसीहत दी कि भाई उससे दोस्ती ठीक नहीं। कभी-कभी की मुलाकात तो ठीक, पर लंबे समय का साथ अच्छा नहीं है। लेकिन वे टोकते-टोकते थककर चुप हो गए। ना-नुकुर करते हुए वे भी मान गए। ताज्जुब कि घरवालों ने इस रिश्ते पर ऐतराज नहीं जताया। शायद उन्हें मेरी मजबूरी पता थी। उन लोगों को भी वह बहुत पसंद थी। उसके गुणों से वाकिफ घरवाले भी गाहे-बगाहे उसके बारे में पूछ लेते थे। अब मुझे भी लगता था कि उसके बिना तो गुजारा नामुमकिन हो गया है।

लेकिन, इधर कुछ दिनों से लोगों ने उस पर एक तोहमत लगा दी है। लोगों का कहना है कि उसने मुझे बिगाड़ दिया है। उससे मुझे खतरा है। ऐसे लांछन से उसका वजूद ही संकट में आ गया है। मैं भी उसका बचाव नहीं कर पा रहा। जमाने के दबाव के आगे मुझे भी झुकना पड़ रहा। मुझे भी उससे दूर होना पड़ रहा। उसका साथ छोड़ना पड़ रहा। पिछले 10 सालों से जिस तरह उसने मेरा साथ निभाया, वह हमेशा याद रहेगा।
तुम बहुत याद आओगी मेरी प्यारी मैगी।
feeling sad.
--------------------------------------------------------------------------------------------------------
नोट : अपनी प्रेम कहानी मैंने उस वक्त लिखी थी, जब मैगी के ‘चरित्र' पर शक किया जा रहा है। पिछले दो महीने से मैगी की ‘अग्निपरीक्षा' लैब में ली जा रही है। मैगी के बाइज्जत बरी होने का मुझे बेसब्री से इंतजार है।

Friday, July 24, 2015



यूं इतनी खामोशी से तुम्हारा चले जाना... (2)


अभी सितंबर की ही तो बात है। उसकी मम्मा ने स्केटिंग क्लास में उसका एडमिशन कराया। नई स्केट किट खरीदी गई। मम्मा-डैडी ने जितने शौक से बच्चे के लिए किट खरीदी थी, बच्चा उससे भी ज्यादा शौक से उसे पहन स्केट करना सीख रहा था। महज एक सप्ताह ही हुए थे स्केटिंग क्लास जाते हुए। स्केट किट पहन स्कूल में क्लासमेट्स के साथ की उसकी फोटो ही हमारे पास उसकी अंतिम फोटो है। उसमें पूरी किट पहन वह स्केट करता दिख रहा है। हर चीज सीखने की उसकी चाहत से लगता था कि जानें कितनी जल्दी थी उसे सारी चीजें सीखने की। इतनी कम उम्र में वह डांस क्लास, स्वीमिंग क्लास और अब स्केटिंग क्लास ज्वाइन कर ली थी। स्कूल टाइम तो था ही। मम्मा दौड़ती-भागती रहती थी अपने बेटे को लेकर। पहले स्कूल, फिर डांस क्लास तो कभी स्वीमिंग क्लास और अभी नई क्लास शुरू हुई थी स्केटिंग की।

मुंबई में वह जितना स्मार्ट, समझदार और वेल मैनर्ड बच्चा था, अपनी नानी के घर कानपुर आकर उतना ही शैतान। बदमाशी सीखने में नानी के घर के सात दिन ही काफी होते थे। हर रोज एक नई शैतानी। मम्मा-डैडी भी हैरान कि सिर्फ एक दिन में ये कैसे मुंबई से कानपुर आकर बदल जाता है। शैतानी और देखनी हो तो सामने से मम्मा-डैडी को हटा दीजिए, फिर देखिए पैसे वसूल ‘अमोघ शो’। इतनी शैतानियों के बीच कुछ शैतानी काउल मामा और चीतेश भाई भी सिखा देते थे। जैसे ए बी सी डी में डी फॉर डंकी के जगह डी फॉर ढेंचू सिखाया गया। ऐसे तो सबके सामने डी फॉर ढेंचू ही बोलता पर जहां मम्मा-डैडी सामने आते तो ढेंचू से डंकी हो जाता। यानी मम्मा-डैडी का टेरर पूरा था।

बड़े होने के साथ-साथ उसकी क्यूटनेस और बढ़ती जा रही थी। यही वजह है कि बाहर कोई भी उसे एक बार देखता तो स्माइल के साथ हाय-बाय करता। डैडी-मम्मा के साथ एक बार ग्रोवल मॉल गया था। एक शॉपकीपर ने उसे देखा तो स्माइल कर हाय करने लगा। मम्मा का हाथ पकड़े अमोघ ने भी क्यूट सी स्माइल दी और मम्मा से सवाल किया, मम्मा मैं स्मार्ट लग रहा हूं ना। वो अंकल मुझे देखकर स्माइल कर रहे हैं। हां बेटा आप बहुत नाइस लग रहे हो। मम्मा का इतना कहना था कि उसने अपने बालों पर हाथ फेर दिया।

कोई चीज उसे पसंद आ जाए तो उसे मांगने का तरीखा भी बिलकुल जुदा था। डायरेक्ट मांगने की बजाए वो मम्मा से कहता कि मम्मा ये अच्छी नहीं है ना...। इतना कह उस चीज को ललचाती नजरों से देखता। यानी चाहिए पर कहना नहीं है। ऐसे ही एक बार मॉल में ट्वॉयज की शॉप के सामने से गुजरना हुआ। वहां रखी एक कार जनाब को पसंद आ गई। आदतन कहा तो कुछ नहीं, पर पलटकर लगातार उसे देखते जा रहा था। मम्मा और डैडी समझ गए। वापस पहुंचे शॉप पर। पूछा, अमोघ कुछ चाहिए? जवाब में जनाब ने ना में सिर हिलाया और कार देखने लगे। यानि कार ही चाहिए, बस और कुछ नहीं। सो कार दिलाई गई।  उसने कभी किसी को इरिटेट नहीं किया। बेवजह की फरमाइशें तो जैसे उसे आती ही नहीं थीं। मम्मा-डैडी ने जितना किया, उतना ही उसके लिए काफी होता था। अमोघ मम्मा-डैडी में खुश और मम्मा-डैडी अमोघ में खुश।

अमोघ की समझदारी का भी एक किस्सा पढ़िए। पानी से उसे बेहद प्यार तो था ही, इसलिए दिन में कई बार हैंडवॉश भी करता था। एक बार स्टूल पर चढ़कर वॉश बेसिन में हाथ साफ कर रहा था। हाथ साफ करने के बाद लाइट ऑफ करने के लिए बगल में ही लगे स्विच का बटन गीले हाथ से दबाया। दबाते ही झटका लगा। कुछ देर बाद डैडी भी हैंड वॉश करने पहुंचे। उन्होंने लाइट ऑफ करने के लिए कर्टेन के सहारे से बटन दबाया। अमोघ ने ये देख लिया। उसके बाद से मजाल है कि वहां कभी उसने गीले हाथ से बटन दबाया हो। पापा को कॉपी करके कर्टेन के ही सहारे अब लाइट ऑफ करता था। ऐसी न जानें कितने ही वाकये हैं जो पलकें भिगो देते हैं।

उसे गए हुए करीब 10 महीने हो रहे हैं। जाने के बाद ऐसा लग रहा था कि हम सब लाइफ में इतनी प्लानिंग करते हैं। बुढ़ापे तक की प्लानिंग कर लेते हैं। तमाम टारगेट फिक्स कर लेते हैं। ऐसा हुआ तो ये करेंगे, वैसा हुआ तो वो करेंगे, इस तरह जानें कितनी ख्वाहिशों, उम्मीदों और जिम्मेदारियों को अपने ऊपर ओढ़ लेते हैं। लेकिन ऊपर वाले की क्या प्लानिंग है, इससे पूरी तरह अंजान होते हैं। जिसकी कल्पना भी नहीं कर सकते, वैसा सोचने, सहने और समझते हुए आगे बढ़ने को मजबूर हो जाते हैं।

अमोघ के जाने पर भी ऐसा ही हुआ। उसके मम्मा-डैडी ने उसके लिए जानें कितनी प्लानिंग कर रखी थीं। इसीलिए इतनी कम उम्र में ही उसे डांसिंग, स्वीमिंग और स्केटिंग क्लास ज्वाइन कराई। मीरा रोड के सबसे अच्छे स्कूल में एडमिशन कराया। उसके लिए हर उस चीज का इंतजाम किया, जिससे उसका ब्रेन और डेवलप हो सके। इन्हीं कोशिशों का असर था कि वो जैसे-जैसे बड़ा हो रहा था, उसके सवाल भी उतने लॉजिकल होते जा रहे थे।  हालांकि अमोघ को लेकर मम्मा-डैडी की उम्मीदों का आसमान जितना ऊंचा था, उसका अहसास उन्होंने कभी बच्चे को होने नहीं दिया। अमोघ जब जो चाहे वो करे, शर्त सिर्फ एक थी कि वो बैड मैनर्स में शुमार नहीं होनी चाहिए। मम्मा-डैडी अमोघ को डॉक्टर-इंजीनियर बनाने से पहले एक अच्छा इंसान बनाना चाहते थे। इसी वजह से परवरिश भी वैसी ही की जा रही थी। लेकिन, सारी कोशिशें, सारी उम्मीदें ऊपरवाले की प्लानिंग के आगे 10 सितंबर 2014 को दम तोड़ गईं।

वो मनहूस रात ताउम्र याद रहेगी...।